मजदूर

किस्मत से मजबूर हूँ, मैं एक मजदूर हूँ,
शायद ईश्वर मुझसे दूर हैं, इसीलिए मैं मजदूर हूँ।

खून -पसीना एक कर रोज खूब काम करता हूँ,
तब कहीं जाकर बच्चों का पेट भर पाता हूँ।

कभी तोड़ता हूँ मैं पत्थर, तो कभी सड़क पर करता काम,
चाहे हो गर्मी या हो ठंडी, कभी नहीं करता आराम।

कभी कोई गलती हो जाए, तो मालिक डाँट पिलाता है,
कभी-कभी ऐसा भी होता, मेहनत की मजदूरी भी नहीं मिल पाता है।

ऐ साहब! मुझे सताओ मत,  मैं एक मजदूर  हूँ,
साहब मैं गरीब हूँ, तभी धूप में काम करने को मजबूर हूँ।

करता हूँ मैं काम जरूर, नहीं किसी का गुलाम हूँ,
साहब मैं मजदूर हूँ, इसलिए चर्चा में आम हूँ।

बीमार बीवी -बच्चों को कराहता छोड़ काम पर चला जाता हूँ,
उनके लिए कुछ पैसे कमा लूँ, खून -पसीना एक कर देता हूँ।

दिन में रिक्शा चलाता और रात में बोझ उठाता हूँ,
कभी न बच्चे भूखे सोएँ, सुबह काम पर चला जाता हूँ।

कटे-फटे कपड़ो में, सूट पहनने का सुख पाता हूँ,
किस्मत से मजबूर हूँ, इसीलिए मजदूर कहलाता हूँ।

मई महीने की 1 तारीख  कहलाता है मजदूर दिवस,
कोई महीना हो या हो कोई तारीख, काम करने को होता है मजदूर विवश।

रचयिता
शिराज़ अहमद,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय ददरा,          
विकास खण्ड-मड़ियाहूं,
जनपद-जौनपुर।

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