आजादी के अमर सेनानी देश बचाया दे कुर्बानी

मिशन शिक्षण संवाद की विनम्र श्रद्धांजलि
प्रसिद्ध शहीद स्मारक "बावनी इमली"
28 अप्रैल 1858


मित्रों, 10 मई 1857 को जब बैरकपुर छावनी में वीर मंगल पांडे ने क्रांति का शंखनाद किया, तो उसकी गूँज पूरे भारत में सुनाई दी। जनपद फतेहपुर में भी जोधा सिंह अटैय्या के नेतृत्व में क्रांतिवीरों ने इस दिशा में कदम बढ़ा दिये। फतेहपुर के डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खाँ भी इनके सहयोगी थे। जोधासिंह अटैय्या के मन में स्वतन्त्रता की आग बहुत लंबे समय से लगी थी। उनका सम्बन्ध तात्या टोपे से बना हआ था।
मातृभूमि को मुक्त कराने के लिए इन दोनों ने मिलकर अंग्रेजों से पांड नदी के तट पर टक्कर ली। आमने-सामने के संग्राम के बाद अंग्रेजी सेना मैदान छोड़कर भाग गयी। 08 जून 1857 जून को ठा. दरियाव सिंह के सेनानायक व उनके पुत्र सुजान सिंह ने खागा के राजकोष में कब्जा कर लिया और स्वतंत्रता का ध्वज फहरा दिया। इधर फतेहपुर कचहरी और राजकोष में कब्जा जमाने के लिए सारे सैनिकों ने धावा बोल दिया, जिसमें रसूलपुर के जोधा सिंह अटैय्या, जमरावा के ठा.शिवदयाल सिंह और कोराई के बाबा गयादीन दुबे भी फौज के साथ सम्मिलित होकर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये। 9 जून 1857 को समूचे फतेहपुर जनपद को स्वतंत्र घोषित कर दिया गया। नाना जी की सलाह पर डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला को यहाँ का चकलेदार (प्रशासक) बनाया गया। लगभग एक माह (32 दिन) तक जिले में स्वतंत्र सरकार चली।
जोधासिंह के मन की ज्वाला इतने पर भी शान्त नहीं हुई। उन्होंने 27 अक्तूबर 1857 को महमूदपुर गाँव में एक अंग्रेज दरोगा और सिपाही को उस समय जलाकर मार दिया, जब वे एक घर में ठहरे हुए थे। सात दिसम्बर, 1857 को इन्होंने गंगापार रानीपुर पुलिस चौकी पर हमला कर अंग्रेजों के एक पिट्ठू का वध कर दिया। जोधासिंह ने अवध एवं बुन्देलखंड के क्रान्तिकारियों को भी संगठित किया।

आवागमन की सुविधा को देखते हुए क्रान्तिकारियों ने खजुहा को अपना केन्द्र बनाया। किसी देशद्रोही मुखबिर की सूचना पर प्रयाग से कानपुर जा रहे कर्नल पावेल ने इस स्थान पर एकत्रित क्रान्ति सेना पर हमला कर दिया। कर्नल पावेल उनके इस गढ़ को तोड़ना चाहता था। परन्तु जोधासिंह की योजना अचूक थी। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का सहारा लिया, जिससे कर्नल पावेल मारा गया। अब अंग्रेजों ने कर्नल नील के नेतत्व में सेना की नयी खेप भेज दी। इससे क्रान्तिकारियों को भारी हानि उठानी पड़ी। लेकिन इसके बाद भी जोधासिंह का मनोबल कम नहीं हुआ। उन्होंने नये सिरे से सेना के संगठन, शस्त्र संग्रह और धन एकत्रीकरण की योजना बनायी। 

इसके लिए उन्होंने छद्म वेष में प्रवास प्रारम्भ कर दिया, पर देश का यह दुर्भाग्य रहा कि वीरों के साथ-साथ यहाँ देशद्रोही भी पनपते रहे हैं। जब जोधासिंह अटैय्या अरगल नरेश से संघर्ष हेतु विचार-विमर्श कर खजुहा लौट रहे थे तो किसी मुखबिर की सूचना पर ग्राम घोरहा के पास कर्नल क्रस्टाइज की घुड़सवार सेना ने उन्हें घेर लिया। थोड़ी देर के संघर्ष के बाद ही जोधासिंह अपने 51 क्रान्तिकारी साथियों के साथ बन्दी बना लिये गये।
28 अप्रैल, 1858 को मुगल रोड पर स्थित इमली के पेड़ पर उन्हें अपने 51 साथियों के साथ फाँसी दे दी गयी। अंग्रेजी हुकूमत ने धमकी दी थी कि यदि किसी ने भी इनके शवों को उतारा तो उसका भी यही हश्र किया जाएगा। जनता को आतंकित करने की दृष्टि से सभी क्रांतिकारियों के शव कई दिनों तक इमली के पेड़ पर ही लटकते रहे। अमर शहीद जोधा सिंह के साथी ठा. महराज सिंह ने अपने 9001 क्रांतिकारियों के साथ 3-4 जून,1858 की रात्रि को इनके अस्थि पंजरों को पेड़ से निकाल कर शिवराजपुर घाट पर अन्तिम दाह संस्कार किया।
बिन्दकी और खजुहा के बीच स्थित वह इमली का पेड़ बावनी इमली आज शहीद स्मारक के रूप में स्मरण किया जाता है। शत-शत नमन 51 वीर हुतात्माओं को जिन्होंने अपने प्राणों का बलिदान देकर आजादी की दीपशिखा को प्रज्ज्वलित किया। आजादी के भूले-बिसरे वीरों को विनम्र श्रद्धांजलि!
यह इमली का पेड़ नहीं है, 
बलिदानों का साक्षी है। 
52 लटके जो इमली पर, 
उनका तिरपनवां साथी है।।
          
संकलनकर्ता
राजकुमार शर्मा,
प्रधानाध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय चित्रवार,
विकास खण्ड-मऊ,
जनपद-चित्रकूट।

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