आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य जयन्ती
आदि शंकराचार्य ने धर्म, संस्कृति और देश की सुरक्षा के लिए की चार मठों की स्थापना
हिंदू कैलेंडर के अनुसार 788 ई0 में वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को भगवान शंकराचार्य का जन्म हुआ था। इस बार ये तिथि मंगलवार, 28 अप्रैल यानी आज है। इस दिन शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है। आदि गुरु शंकराचार्य ने कम उम्र में ही वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इसके बाद 820 ई में इन्होंने हिमालय में समाधि ले ली। आदि शंकराचार्य का भारतीय सनातन परंपरा के विकास, प्रचार व प्रसार में अहम योगदान रहा है। आदि शंकाराचार्य ने देश में 12 ज्योतिर्लिंगों और भारत के चारों कोनों में चार मठों की स्थापना की थी। ये चार मठ हैं-श्रृंगेरी मठ, गोवर्द्धन मठ, शारदा मठ और ज्योतिर्मठ। हर साल वैशाख शुक्ल पक्ष की पचंमी तिथि को आदि शंकराचार्य की जयंती मनाई जाती है।
उनका जन्म दक्षिण भारत के नम्बूदरी ब्राह्मण कुल में हुआ था। आज इसी कुल के ब्राह्मण बद्रीनाथ मंदिर के रावल होते हैं। ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य की गद्दी पर नम्बूदरी ब्राह्मण ही बैठते हैं। माना जाता है कि भगवान शिव की कृपा से ही आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म हुआ। जब ये तीन साल के थे तब इनके पिता की मृत्यु हो गई। इसके बाद गुरु के आश्रम में इन्हें 8 साल की उम्र में वेदों का ज्ञान हो गया। फिर ये भारत यात्रा पर निकले और इन्होंने देश की चार दिशाओं में चार पीठों की स्थापना की। कहा जाता है इन्होंने 3 बार पूरे भारत की यात्रा की।
चार वेद चार मठ
जिस तरह ब्रह्मा जी के चार मुख हैं और उनके हर मुख से एक वेद की उत्पत्ति हुई है। यानी पूर्व के मुख से ऋग्वेद, दक्षिण से यजुर्वेद, पश्चिम से सामवेद और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की उत्पत्ति हुई है। इसी आधार पर शंकराचार्य ने 4 वेदों और उनसे निकले अन्य शास्त्रों को सुरक्षित रखने के लिए 4 मठ यानी पीठों की स्थापना की।
ये चारों पीठ एक-एक वेद से जुड़े हैं। ऋग्वेद से गोवर्द्धनपुरी मठ यानी जगन्नाथ पुरी, यजुर्वेद से श्रृंगेरी जो कि रामेश्वरम् के नाम से जाना जाता है। सामवेद से शारदा मठ जोकि द्वारिका में है और अथर्ववेद से ज्योतिर्मठ जुड़ा है। ये बद्रीनाथ में है। माना जाता है कि ये आखिरी मठ है और इसकी स्थापना के बाद ही आदि गुरु शंकराचार्य ने समाधि ले ली थी।
देश में सांस्कृतिक एकता
ज्योतिर्मठ के बद्रिकाश्रम के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का कहना है कि भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक एकता के लिए आदि शंकराचार्य ने विशेष व्यवस्था की थी। उन्होंने उत्तर भारत के हिमालय में स्थित बदरीनाथ धाम में दक्षिण भारत के ब्राह्मण पुजारी और दक्षिण भारत के मंदिर में उत्तर भारत के पुजारी को रखा। वहीं पूर्वी भारत के मंदिर में पश्चिम के पुजारी और पश्चिम भारत के मंदिर में पूर्वी भारत के ब्राह्मण पुजारी को रखा था। जिससे भारत चारों दिशाओं में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से मजबूत हो व एकता के सूत्र में बँध सके।
देश की रक्षा
आदि शंकराचार्य ने दशनामी संन्यासी अखाड़ों को देश की रक्षा के लिए बाँटा। इन अखाड़ों के सन्यासियों के नाम के पीछे लगने वाले शब्दों से उनकी पहचान होती है। उनके नाम के पीछे वन, अरण्य, पुरी, भारती, सरस्वती, गिरि, पर्वत, तीर्थ, सागर और आश्रम, ये शब्द लगते हैं। आदि शंकराचार्य ने इनके नाम के मुताबिक ही इन्हें अलग-अलग जिम्मेदारियाँ दी।
इनमें वन और अरण्य नाम के संन्यासियों को छोटे-बड़े जंगलों में रहकर धर्म और प्रकृति की रक्षा करनी होती है। इन जगहों से कोई अधर्मी देश में न आ सके, इसका ध्यान भी रखा जाता है।
पुरी, तीर्थ और आश्रम नाम के सन्यासियों को तीर्थों और प्राचीन मठों की रक्षा करनी होती है।
भारती और सरस्वती नाम के सन्यासियों का काम देश के इतिहास, आध्यात्म, धर्म ग्रंथों की रक्षा और देश में उच्च स्तर की शिक्षा की व्यवस्था करना है।
गिरि और पर्वत नाम के सन्यासियों को पहाड़, वहाँ के निवासी, औषधि और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया।
सागर नाम के संन्यासियों को समुद्र की रक्षा के लिए तैनात किया गया।
लेखक
माधव सिंह नेगी,
प्रधानाध्यापक,
राजकीय प्राथमिक विद्यालय जैली,
विकास खण्ड-जखौली,
जनपद-रुद्रप्रयाग,
उत्तराखण्ड।
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