फूलों से काँटों तक का सफर

मन में सपने, थोड़ा डर था
लोग नए थे, नया शहर था
विदा समय जब माँ रोई थी
मेरा मन भी धरा 'अधर' था।

दो रातों की नींद भरी थी
आँखें भी उधड़ी-उधड़ी थी
लेकिन रस्मों की उलझन में
सब उलझे थे, मैं उलझी थी।

मन उदास था, मन विह्वल था
माँ के घर में, गुजरा कल था
आज नए थे सारे चेहरे
न कोई माँ सा निश्छल था।

मैं सुकून में कुछ पल बैठी,
अब 'अपना घर' देख रही थी
न जाने कमरे के बाहर,
कैसी चीख पुकार मची थी?

ऐसे कैसे शादी कर ली?
न स्वागत न सम्मान मिला।
एसी, मिक्सर, फ्रिज, टीवी
सब लोकल सामान मिला।

सोच रही मैं अब क्या होगा?
अपना कौन यहाँ मेरा?
पति भी शामिल हैं टोली में
अच्छा मौन यहाँ मेरा?

तभी ननद ने आकर मुझको,
आँखों से आदेश दिया,
बाहर लगी कचहरी है
और चलने का संदेश दिया।

मैं मन ही मन दहशत में थी
अब आगे क्या होना है?
लिखी-पढ़ी मैं, अब जीवन में
क्या आगे बस रोना है?

मैं लड़की थी तो पापा ने,
ख़ुद में कमी-कटौती की,
अच्छा घर-परिवार मिले,
ढेरों जगह मनौती की।

रचयिता
नीलम सिंह, 
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय घसिला का डेरा,
विकास खण्ड - खजुहा,
जनपद - फतेहपुर।

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