भगवान परशुराम जयंती

जय परशुराम ललाम करूणाधाम दुखहर सुखकरं।
जय रेणुका नंदन सहस्त्रार्जुन निकंदन भृगुवरं॥
जमदग्नि सुत बल बुद्घियुक्त, गुण ज्ञान शील सुधाकरं।
भृगुवंश चंदन,जगत वंदन, शौर्य तेज दिवाकरं॥

भगवान विष्णु के छठे 'आवेश अवतार' भगवान परशुराम का जन्म भगवान श्रीराम के पूर्व हुआ था। श्रीराम सातवें अवतार थे। वर्तमान शोधकर्ताओं के द्वारा रामायण के आधार पर किए गए शोधानुसार श्रीराम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था।  भगवान परशुराम का जन्म 5142 वि.पू. वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन-रात्रि के प्रथम प्रहर में हुआ था। इनका जन्म समय सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है।

मान्यता है कि पराक्रम के प्रतीक भगवान परशुराम का जन्म 6 उच्च ग्रहों के योग में हुआ, इसलिए वह तेजस्वी, ओजस्वी और वर्चस्वी महापुरुष बने।

भगवान परशुराम जी का जन्म अक्षय तृतीया पर हुआ था इसलिए अक्षय तृतीया के दिन परशुराम जयंती मनाई जाती है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से भगवान परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ था। इस तिथि को प्रदोष व्यापिनी रूप में ग्रहण करना चाहिए क्योंकि भगवान परशुराम का प्राकट्य काल प्रदोष काल ही है।

परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैं। उन्होंने  क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार किया था। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। जिस में कोंकण, गोवा एवं केरल का समावेश है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चलाकर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पीछे धकेलते हुए नई भूमि का निर्माण किया और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरला में भगवान परशुराम वंदनीय हैं। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्मे अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।

यह भी ज्ञात है कि परशुराम ने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीख ली थीं। वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। यहाँ तक कि कई खूँखार वनैले पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे।उन्होंने शिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं जैसे भीष्म और कर्ण उनके जाने-माने शिष्य थे। भीष्म, द्रोण, कौरव-पाण्डवों के गुरु व अश्वत्थामा के पिता एवं  कर्ण उनके शिष्य थे ।
कर्ण को यह ज्ञात नहीं था कि वह जन्म से क्षत्रिय हैं। वह सदैव ही स्वयं को सूतपुत्र समझता रहा लेकिन परशुराम को अपना असली भेद नहीं बताया। किन्तु परशुराम वर्ण व्यवस्था को अनुचित मानते थे। यदि कर्ण उन्हें अपने शुद्र होने की बात बता भी देते तो भी भगवान परशुराम कर्ण के तेज और सामर्थ्य को देख उन्हें सहर्ष शिक्षा देने को तैयार हो जाते। किन्तु जब परशुराम को इसका ज्ञान हुआ कि वे क्षत्रिय हैं तो उन्होंने कर्ण को यह श्राप दिया की उनका सिखाया हुआ सारा ज्ञान उसके किसी काम नहीं आएगा जब उसे उसकी सर्वाधिक आवश्यकता होगी। वह उसे सब भूल जाएगा। इसलिए जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण और अर्जुन आमने सामने होते हैं तब वह अर्जुन द्वारा मार दिया जाता है क्योंकि उस समय कर्ण को ब्रह्मास्त्र चलाने का ज्ञान ध्यान में ही नहीं रहा।

भगवान परशुराम किसी समाज विशेष के आदर्श नहीं है। वे संपूर्ण हिन्दू समाज के हैं और वे चिरंजीवी हैं। उन्हें राम के काल में भी देखा गया और कृष्ण के काल में भी। उन्होंने ही भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध कराया था। कहते हैं कि वे कलिकाल के अंत में उपस्थित होंगे। ऐसा माना जाता है कि वे कल्प के अंत तक धरती पर ही तपस्यारत् रहेंगे। पौराणिक कथा में वर्णित है कि महेंद्रगिरि पर्वत भगवान परशुराम की तप की जगह थी और अंतत: वह उसी पर्वत पर कल्पांत तक के लिए तपस्यारत होने के लिए चले गए थे।

सतयुग में जब एक बार गणेशजी ने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया तो, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार कर दिया, जिससे गणेश का एक दाँत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए। त्रेतायुग में  जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम का अभिनंदन किया।

द्वापर में उन्होंने कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन किया और इससे पहले उन्होंने श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध करवाया था। द्वापर में उन्होंने ही असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्र विद्या प्रदान की थी। इस तरह परशुराम के अनेक किस्से हैं।

परशुराम ने एक बार अपने पिता के कहने पर अपनी माता का वध कर दिया था। इस कारण उन्हें मातृ हत्या का पाप भी लगा। भगवान शिव की तपस्या के बाद ही ये माता की हत्या के पाप से मुक्त हो पाए।

एक दिन गंधर्वराज चित्ररथ अप्सराओं के साथ नदी के तट पर विहार कर रहे थे। उसी समय परशुराम की माताजी रेणुका हवन के लिए जल लेने नदी के तट पर आयी थीं । गंधर्वराज और अप्सराओं की क्रीड़ा  देखने में वह इतनी आसक्त हो गईं कि हवन के लिए समय पर जल लेकर नहीं पहुँचा सकीं।
हवन काल व्यतीत हो जाने के कारण ऋषि जमदग्नि, माता रेणुका पर अत्यधिक क्रोधित हुए। उनका क्रोध इतना तीव्र था कि उन्होंने अपने बड़े पुत्र को अपनी माता का वध करने का आदेश दे दिया। लेकिन मात्र मोह के कारण वह ऐसा नहीं कर सके।
इसी प्रकार जमदग्नि ने अपने दूसरे और तीसरे पुत्र को भी माता का वध करने का आदेश दिया लेकिन वह दोनों भी पीछे हट गए। इस पर जमदग्नि ने उन्हें उनकी विचार चेतना नष्ट होने का शाप दे दिया। परन्तु परशुराम ने पिता का कहा माना और माता का वध कर दिया।
पुत्र को अपनी आज्ञा का पालन करता देख जमदग्नि बहुत खुश हुए और प्रसन्न हुए और उनसे वर माँगने को कहा। इस पर परशुराम ने अपने पिता से 3 वर माँगे।
परशुराम ने पहला वरदान माँगा कि माता पुन: जीवित हो जाएँ। दूसरा-उन्हें मरने की स्मृति न रहे और तीसरा- भाइयों की चेतना पुन: आ जाए। जमदग्नि ने उन्हें तीनों वचन पूरा होने का आशीर्वाद दे दिया।

लेखक
माधव सिंह नेगी,
प्रधानाध्यापक,
राजकीय प्राथमिक विद्यालय जैली,
विकास खण्ड-जखौली,
जनपद-रुद्रप्रयाग,
उत्तराखण्ड।

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