प्रकृति

हरे - हरे खेतों में,
         बरस रही है रिमझिम बारिश
मेरे मन को उसके मन को,
         सब के मन को भाती बारिश
ये पानी की नन्हीं बूँदें,
          गिरती है जब धरती के तन पर
लगता जैसे मेरे मन को,
          भिगो रही हैं बरस बरस कर
जब गिरती है चातक पक्षी के मुख,
          ये स्वाति नक्षत्र की बूँदें
प्यासे पंछी को देती राहत,
          उसके मुख में जा धीरे-धीरे
जब ये गिरती सीप के भीतर,
           मोती का रूप धर लेती हैं
जब गिरती बारिश बनकर,
           प्रकृति को हरा-भरा कर देती है
लगता यह संसार कितना सुंदर,
          किंतु लोग कर रहे प्रकृति का शोषण
नदियों के बहाव को रोका,
           और उन पर बाँध बना डाले
जगह-जगह बहती धाराएँ,
           बनकर रह गए गंदे नाले
सब से मेरा एक ही निवेदन,
           प्रकृति का मत करिए शोषण
यदि प्रकृति को हानि पहुँचाएँगे,
          धरा पर प्राणी जीवित न रह पाएँगे।।
                       
रचयिता
दीपिका मित्तल,
सहायक अध्यापिका,
प्राथमिक विद्यालय जनेटा द्वितीय,
विकास खण्ड-बनिया खेड़ा,
जनपद-संभल।

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