विद्यालय एक संस्कारशाला

प्राचीन काल से ही बच्चों की शिक्षा- दीक्षा शालाओं में गुरुओं द्वारा दी जाती रही है जिन्हें गुरुकुल के नाम से भी जानते हैं। आजकल इन्हीं गुरुकुल को विद्यालय नाम से जानते हैं। इन्हीं प्राचीन गुरुकुलों में गुरुओं द्वारा बच्चों को संस्कारित किया जाता था। गुरुकुल प्रायः आवासीय होते थे। शिष्य सुबह से शाम तक दैनिक क्रियाएँ अनुशासन में रहकर करते थे जिससे उनमें अच्छे आचार-विचार उत्पन्न होते थे, अच्छे संस्कार आते थे। गुरुकुल का माहौल शालीन, अनुशासन युक्त, संस्कार देने वाला होता था।

आज के समय में उन संस्कारशालाओं और गुरुकुलों को हम विद्यालय रूप में देख रहे हैं। इन विद्यालयों में गुरुजनों को शिक्षक, अध्यापक, सहायक अध्यापक, प्रधानाध्यापक, प्रधानाचार्य, शिक्षामित्र, अनुदेशक आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है। आज के शिक्षक भी उन संस्कारशालाओं के गुरुजनों की शिक्षा का अनुसरण कर शिक्षण कार्य करते हैं तो निश्चित ही शिक्षार्थी संस्कारित होंगे। 

जब गुरु ज्ञानरूपी भट्टी में छात्रों को लौह अयस्क रूप में तपाया जाता है तो निश्चित ही उसमें अच्छे संस्कारवान शिक्षार्थी लोहे की तरह निकलेंगे। वैसे भी कहा गया है:-
संगत ही गुन उपजे, संगत ही गुन जाए।
लोहा लगा जहाज में, सो पानी पर उतराय।।
जब हमें अच्छे गुरुओं का सानिध्य मिल जाएगा तो हमारी विद्यालयों में संस्कारित शिक्षार्थी निकलेंगे। आज के समय में हमारे  विद्यालयों में संसाधनों की कमी नहीं है। कमी यदि है तो शिक्षक-शिक्षार्थी और अभिभावक के बीच समन्वय की। आपने देखा होगा कि कोई मदारी जब खेल दिखाता है तो वह डमरु बजाकर भीड़ को एकत्र करता है और एक कपड़े का साँप बनाकर नेवले साँप की लड़ाई दिखाने को कहता है। ऐसा वह क्यों कहता है सिर्फ भीड़ एकत्र करने के लिए किंतु इन विद्यालयों में  शिक्षक भी मदारी की तरह समाज के बच्चों को शिक्षित करने के लिए मदारी की तरह संसाधन जुटाकर अपने कौशल से विद्यालय परिवेश को सुंदर बनाए और साधन सुविधा युक्त अपने विद्यालय में पढ़ाई हेतु माहौल तैयार करें। तभी हमारे विद्यालय एक अच्छे संस्कारशाला के रूप में दिखाई देंगे। इसके लिए शिक्षक को नकारात्मक सोच को त्यागना होगा। समय का पूरा पूरा सदुपयोग शिक्षण कार्य में करना होगा।
यदि विद्यालयों में अच्छा परिवेश होगा और बच्चों-शिक्षकों के बीच गतिविधि आधारित माहौल में शिक्षण कार्य मनोयोग से होगा तो शिक्षा का स्तर बढ़ेगा। सुबह विद्यालय खुलने से लेकर शाम बंद होने तक प्रतिक्षण आपके द्वारा शिष्टाचार, वार्तालाप, सेवा कार्य, अनुशासन, खेलकूद, नैतिक शिक्षा, आहार-विहार आदि के बारे में अनुकरण करेंगे जिससे उनके जीवन में अच्छे -अच्छे संस्कार मिलने की राह प्रशस्त होगी। अच्छे संस्कार शिक्षार्थी को शिक्षक, अभिभावक और समाज ही दे सकता है। जब शिक्षक अपने कार्य कौशल और व्यवहार से बच्चों को संस्कारित करेगा तो निश्चित ही शिक्षक के प्रति आदर और सम्मान का भाव समाज में जागेगा।
तभी कहा गया है:-
गुरुर ब्रह्मा, गुरुर विष्णु। गुरुर देवो महेश्वरा।
गुरुर साक्षात परम ब्रम्ह।   तस्मै श्री गुरुवे नमः।

आओ हम सब मिलकर अपने विद्यालय को शिक्षा देने के साथ-साथ एक संस्कारशाला भी बनाएँ।

लेखक
कृष्ण गोपाल,
इं0 प्रधानाध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय दलेलनगर,
विकास खण्ड- अजीतमल,
जनपद- औरैया।

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