बेचारी गौरेया

अब नानी की कहानी भी,

लगता कहानी बन गयी।

आँगन  में फुदक- फुदक,

चलती गौरेया भी खो गयी।


चीं -चीं  कर  दान  लाती,

बच्चों को थी अपने खिलाती।

घर आँगन में रौनक रहती,

माँ कटोरी में  पानी पिलाती।


दुनिया की प्रगति दौड़ में,

बेचारी  पीछे  रह गयी।

प्रदूषण की बहती बाढ़ में,

देखो वह अब मर गयी।


तरु कटे  शाखाएँ  कटीं,

गगनचुंबी टावर बनने लगे।

बेचारी गौरेया भटकती रही,

आशियाने उसके छिनने लगे।


मैग्नेट  किरणों के जाल से,

गौरेया संग चूजे  भी मरते गए।

हरियाली कहीं न मिल पायी,

दाने-दाने को तरसते रह गए।


जलवायु भी सह न सकी,

गर्मी  से  झुलसती  गयी।

ग्लोबल   वॉर्मिंग के होते,

न  जाने  कहाँ    गयी।


वन भी तो वन न रहे अब,

पेड़ नहीं, इमारतें बन गयीं।

बेचारे  पक्षी  क्या करते?

उनकी जान पर बन गयी।


दिखे अगर कोई  गौरेया,

दाना -पानी, आसरा देना।

पेड़ों की घनी छाँव संग,

अटारी पर घोंसला बनाने देना।


रचयिता

सन्नू नेगी,

सहायक अध्यापक,
राजकीय कन्या उच्च प्राथमिक विद्यालय सिदोली,
विकास खण्ड-कर्णप्रयाग, 
जनपद-चमोली,
उत्तराखण्ड।



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