गौरैया

चीं-चीं, चूँ-चूँ करती रहती,

 घर आँगन की मुंडेर पर।

 बीत गई हैं अब वह बातें,

 जाऊँ कहाँ यह सोच कर।


 दादी-नानी पहले घर में,

 करतीन5 मुझसे बातें थीं।

 कहानियाँ सुनाते थे मेरी,

 बचपन में वो रातें थीं।


 गेहूँ, झंगोरा, धान, बाजरा,

 मेरा प्रिय भोजन है।

 धीरे-धीरे सब समाप्त हो रहे,

 इसीलिए तो ओझल है।


 गाँव में भी घर थे ऐसे,

 जिनमें मेरा भी था बसेरा।

 शहरीकरण भा गया है सबको,

 कहाँ जाऊँ..? बनाऊँ घर मेरा।


 वृक्षारोपण होता है जो,

 उनमें पौध विदेशी है।

 नहीं प्रिय मुझको यह सब,

 चीं-चीं अपनी स्वदेशी है।


 मोबाइल टावरों के बनने से,

 बढ़ गया है खतरा मेरा।

 इलेक्ट्रॉनिक मैग्नेट किरणों से,

 डर लगता है बहुतेरा।


 ओझल हो जाऊँगी मैं एक दिन,

 कहाँ बनाऊँ आशियाना।

 आधुनिकरण के कारण ही,

 खत्म हो रहा मेरा जमाना।


 अगर कहीं दिख जाती हूँ मैं,

 ओ मुझे बुलाओ प्यार से।

 दाना-पानी देकर के,

 जीवन दो संसार में।


रचयिता

बबली सेंजवाल,
प्रधानाध्यापिका,
राजकीय प्राथमिक विद्यालय गैरसैंण,
विकास खण्ड-गैरसैंण 
जनपद-चमोली,
उत्तराखण्ड।



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