नन्हीं गौरैया
नन्हीं सी मैं हूँ गौरैया
ध्यान जरा दो, मुझ पर भैया।
चूँ-चूँ करती फिरती थी
आँगन में धुन तब बजती थी।।
कोई मुझको भी लौटा दो
मेरा दाना, मेरे दिन।
मुझको एक घरौंदा दे दो
कहाँ रहूँ अब उसके बिन।।
काट रहे तुम नित पेड़ों को
मेरा वास वही तो थे।
मैं निर्भर थी वन-वृक्षों पर ही
मेरी आस यहीं तो थे।।
नहीं हूँ दिखती, अब अक्सर तुमको
क्यों ऐसा तुमने काम किया?
तुमने प्रयोग कर रासायनिक पदार्थ
क्यों मेरा जीवन बर्बाद किया?
कीटनाशकों का बढ़ा प्रयोग
भोजन पानी भी हुआ प्रदूषित।
रेडियोधर्मी प्रदूषण बढ़ता ही जाता
मौसम भी है अब अनुकूल नहीं।।
कैसे अपना जीवन जी लें
जब शेष बचा अब कुछ भी नहीं।
विलुप्त हुए हैं या हैं खतरे में
है जीवन का दुर्भाग्य यही।।
नन्हें बच्चों संग फुदक-फुदककर
मैं यादों में बस जाती थी।
नानी-दादी की कविताओं में मैं
अक्सर अपनी जगह बनाती थी।।
मैं, नन्हीं गौरैया अब करूँ पुकार
यूँ मुझको न तुम नष्ट करो
पर्यावरण संतुलन में हूँ मैं सहायक
मेरी रक्षा को तुम मार्ग चुनो।
रचयिता
गरिमा सिंह चंदेल,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय चन्द्रवल किशनपुर,
विकास खण्ड-मैथा,
जनपद-कानपुर देहात।
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