नए जमाने की होली
होली का त्योहार भी, भूला अपना रंग।
नया जमाना आ गया, फूहड़ता के संग।
अब ना फाग सुनाए कोई, ना गाये जोगीरा।
ना होरी पड़े सुनाई कहीं, ना ढोल मंझीरा।
नए दौर के डीजे देखके, खड़े हैं चैता दंग।
नया जमाना आ गया, फूहड़ता के संग।
घर पे बने न कचरी पापड़, गुजिया शक्करपारे।
सेव शाखें मोल मिलें, बाजार की है पौ बारह।
भाव घटे हैं भाव के ही, लगी हाथों में जंग।
नया जमाना आ गया, फूहड़ता के संग।
पूजन को है समय नहीं, सुबह को उठना भारी।
देर से उठके सीधे होती, दारू की तैयारी।
पीछे हैं सूखे गुलाल, आगे काँच मिले रंग।
नया जमाना आ गया, फूहड़ता के संग।
होली ठिठोली से कभी, गलियाँ थीं गुलजार।
भेद भूल एका सिखाता, प्यार का त्योहार।
टूट गए रस्मोरिवाज, सद्भाव हुआ अपंग।
नया जमाना आ गया, फूहड़ता के संग।
ढूँढ रहे बेपरवाही में, बीते कल की रूह।
बैर की राह में प्यार भरी, मंज़िल बड़ी दुरूह।
लुटी बसंत से बुढ़वा तक, दिल में भरी उमंग।
नया जमाना आ गया, फूहड़ता के संग।
रचयिता
दीप्ति सक्सेना,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय कटसारी,
विकास खण्ड-आलमपुर जाफराबाद,
जनपद-बरेली।
Thanks MSS Vichar shakti🙏🏼
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