हिरोशिमा विस्फोट

6 अगस्त 1945 का काला दिन,

याद दिलाए भीषण विभीषिका।

सहमे-सहमे चेहरे वो,

चीखी थी जब निर्दयता।।


भौतिकवादी विश्व बना जब,

धुआँ-धुआँ दसों दिशाएँ।

मच रही थी चीख पुकार,

दिशाहीन मानव छायाएँ।।


अणु विस्फोट काला कलंक वह,

मिटाये जो मिट ना पाया।

निकलीं तीक्ष्ण ज्वालाएँ ऐसी, 

हिरोशिमा सह ना पाया।।


बरसा रेडिएशन था फिर,

बन करके काली बारिश।

मौत का मंजर पसरा कैसा,

कैसी यह बदले की साजिश।।


क्यों? बारूद के ढेर पर,

बैठी है दुनिया सारी।

खो-सी गयी मानवता जैसे,

अमानुषता का पलड़ा भारी।।


रचयिता

ज्योति विश्वकर्मा,

सहायक अध्यापिका,

पूर्व माध्यमिक विद्यालय जारी भाग 1,

विकास क्षेत्र-बड़ोखर खुर्द,

जनपद-बाँदा।

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