प्रकृति के सुकुमार कवि फिर से पधारो
अरुणाचल से उदित हो रहा किरणों का दल,
पवन सुगंधित मंथर गति से बहती शीतल,
पुष्पों की नव पंखुड़ियाँ खिलने को तत्पर,
भंवरों का गुंजार तथा पक्षी का कलरव,
पंत सुमित्रानंदन की सुधि में हैं विह्वल।
प्रकृति का सुकुमार वह मन का चितेरा,
जिसने प्रकृति के रंग में यौवन बिखेरा,
शुचित पावन भावना से बद्ध होकर,
प्रेम की अभिव्यंजना को फिर सँवारा।
संदेश देती है जिसे वह मलय द्वारा।
लाल पीले श्वेत मोती हार पहने,
वाटिका से चुन लिए अनगिनत गहने,
हरित चुनर लाज की घूँघट समेटे,
प्रकृति नित श्रृंगार करके बैठती है,
आँसुओं से इस धरा को सींचती है।
प्रकृति के सुकुमार तुम फिर से पधारो,
काव्यमय कर दो पुनः तुम इस धरा को,
नव रूप में आकर पुनः इसको सँवारो,
मौन आमंत्रण सहज स्वीकार कर लो,
प्रेम का फिर विश्व में प्रसार कर दो।
रचयिता
मीनू जोशी,
सहायक अध्यापक,
राजकीय कन्या जूनियर हाई स्कूल चौसाला,
विकास खण्ड-धौलादेवी,
जनपद-अल्मोड़ा,
उत्तराखण्ड।
बहुतख़ूब💕
ReplyDeleteअति सुन्दर रचना 👏👏🌷🌷🌷🌹🌹🙏
ReplyDeleteवाह ! क्या बात है मैम
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन रचना
सादर अभिनन्दन।