97/2024, बाल कहानी-22 मई


बाल कहानी- सत्यवादी हरिश्चन्द्र
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तीन बरस की भूमि अपनी दादी से कह रही थी कि-, "दादी! मैं अभी टीवी में सुन रही थी। उसमें एक बाबाजी बता रहे थे कि हमें हमेशा सत्य बोलना चाहिए। क्यों?"
दादी बोली-, "हाँ! सही बात है, हमें हमेशा सच बोलना चाहिए। सच बोलने वाले से सभी प्रेम करते हैं। सभी उसकी अन्त में सहायता करते हैं। आओ, बैठो! आज हम तुम्हें सत्यवादी हरिश्चन्द्र की कहानी सुनाते हैं।" भूमि दादी के पास बैठ जाती है और कहती है-, "सुनाइए, दादी!"
दादी कहानी सुनाती है-, "सत्ययुग में एक बहुत ही प्रसिद्ध राजा हुए हैं। जिनका नाम था- राजा हरिश्चन्द्र। हरिश्चन्द्र अयोध्या के राजा थे। वह बहुत ही सत्यवादी, उदार, न्यायप्रिय राजा थे। वह प्रजा की हर सुख-सुविधा का ध्यान रखते थे। प्रजा का कष्ट उनसे देखा नहीं जाता था। प्रजा के लिए वह सब कुछ छोड़ने को तैयार रहते थे।
एक रात्रि में राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में देखा कि विश्वामित्र ने उनसे सारा राज-पाट दान में ले लिया है और दक्षिणा में उनसे कुछ सोने की मुद्राएँ माँगी हैं। राजा ने वह स्वर्ण मुद्राएँ देना स्वीकार कर लिया है।
अगले दिन महर्षि विश्वामित्र राजा के दरबार में उपस्थित हुए और स्वप्न में दी हुई दक्षिणा की माँग करने लगे। राजा ने दक्षिणा लाने के लिए कोषाध्यक्ष को इशारा किया, तभी विश्वामित्र बोले-, "आपका ये सारा राज-पाट मेरा हुआ। अब आप दक्षिणा में इससे कुछ नहीं दे सकते हैं।"
"तो फिर मैं कैसे आपकी दक्षिणा चुकाऊँ?" राजा ने पूछा!
"राजन्! इसके लिए दो ही रास्ते हैं। या तो आप मेहनत-मजदूरी करके अपनी स्वयं की कमाई से दक्षिणा चुकायें या फिर आप स्वयं को, अपनी पत्नी और पुत्र को बेचकर दक्षिणा चुकायें।"
"मैं अपनी पत्नी और पुत्र को भला कैसे बेच सकता हूँ। हम तीनों कड़ी मेहनत करके आपकी दक्षिणा चुकायेंगे।" राजा ने कहा!
"नहीं, ये संभव नहीं है। आपने दक्षिणा चुकाने के लिए मुझे एक सप्ताह का वचन दिया था, जिसका आज पहला दिन है। राजन्! जिस सिंहासन पर आप बैठे हो, वह मेरा है।" विश्वामित्र महर्षि की ये बात सुनकर हरिश्चन्द्र तुरन्त सिंहासन से नीचे उतर गये और विश्वामित्र जी को उस पर बैठने को कहा। विश्वामित्र जी ने सिंहासन पर विराजमान होते ही कहा-, "हरिश्चन्द्र! अभी समय है। आप अपनी पत्नी और बच्चे को लेकर मेरे राज्य में घूमें और स्वयं को बेचकर मेरी दक्षिणा चुकायें, अन्यथा आप अपने दिए गये वचन से फिर जायेंगे और कोई भी आपको सत्यवादी नहीं कहेगा।" राजा विश्वामित्र जी की बात सुनकर हरिश्चन्द्र तुरन्त अपनी पत्नी और बच्चे के साथ स्वयं को बेचने के लिए निकल पड़े।
चलते-चलते वे तीनों बनारस के  एक प्रसिद्ध बाजार में पहुँचे, जहाँ तीनों ने स्वयं को बेचकर महर्षि विश्वामित्र जी की दक्षिणा चुकायी। हरिश्चन्द्र ने स्वयं को एक डोम के हाथों बेचकर मरघट में शवों को कर लेकर जलाने का कार्य करते थे। उनकी पत्नी सैव्या पुत्र रोहित के साथ एक व्यापारी के यहाँ नौकरानी के रुप झाड़ू लगाने, बरतन माँजने का कार्य करती थी।
एक दिन रोहित को सर्प ने काट लिया। सैव्या अपने पुत्र को मरा जानकर उसे दफनाने के लिए मरघट पहुँची। वहाँ अपने पति को देखकर रोते हुए सारी घटना बतायी। हरिश्चन्द्र ने धैर्य धारण कर कहा कि-, "यह सब हमारी परीक्षा है। सत्य की राह में कठिन से कठिन परीक्षाएँ होती हैं। हमें इनसे घबराना नहीं चाहिए। अगर हम सही है और अपने कर्म और कर्तव्य पथ पर अग्रसर हैं तो हमारा कुछ भी अनिष्ट नहीं हो सकता। मैं बिना कर के आपके पुत्र को नहीं दफना सकता हूँ।"
यह सुनकर सैव्या ने कर के लिए अपनी आधी साड़ी फाड़कर देनी चाही, उसी समय विश्वामित्र और वशिष्ठ जी तथा अन्य ऋषि-मुनि वहाँ प्रकट हो गये और सबने हरिश्चन्द्र की सत्य-निष्ठा की बहुत प्रसंशा की। विश्वामित्र जी ने उनका राज्य वापस कर, उनके पुत्र को जिन्दा कर, उन्हें दासता के जीवन से मुक्त किया। राजा हरिश्चन्द्र ने अपनी पत्नी सैव्या और पुत्र रोहित के साथ सभी को प्रणाम कर सिर झुकाया। सभी ऋषि-मुनियों ने उन्हें आशीर्वाद दिया।

संस्कार सन्देश-
कर्म करना है तुझे, वो ही तेरा अधिकार है।
फल की नहीं इच्छा करो, वही ब्रह्म को स्वीकार है।।

लेखक-
जुगल किशोर त्रिपाठी
प्रा० वि० बम्हौरी (कम्पोजिट)
मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)
कहानी वाचक
नीलम भदौरिया
जनपद- फतेहपुर

✏️संकलन
📝टीम मिशन शिक्षण संवाद
नैतिक प्रभात

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