भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
ज्ञान, कला, साहित्य की नगरी,
काशी में गूँजी किलकारी।
उज्ज्वल चन्द्र के जैसे चमका,
धरा अचम्भित थी सारी।।
कोना-कोना हुआ सुगन्धित,
परिवार में आयी खुशहाली।
सुरभित हुआ भाषा का उपवन,
पिता गोपाल चन्द्र व्यापारी।।
गिरधर दास नाम से की थी,
ब्रज भाषा में काव्य रचनाएँ।
चमकहीन गद्य रेखा को,
नवल राह भारतेन्दु दिखाएँ।।
पत्रकारिता प्रथम था पथ,
समाज जागरण को चुना।
कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र चन्द्रिका से,
स्वतन्त्रता का स्वप्न बुना।।
राष्ट्रभाषा, प्रकृति, शिक्षा,
शोषण विरोध के स्वर दिखे।
भारतेन्दु ने प्रचुर लेख,
विविध विधाओं में लिखे।।
9 सितम्बर 1850 का तेज,
6 जनवरी 1885 में छिन गया।
परिवेश को जो रचनाओं से,
सुवासित सुगन्धित कर गया।।
रचयिता
ज्योति विश्वकर्मा,
सहायक अध्यापिका,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय जारी भाग 1,
विकास क्षेत्र-बड़ोखर खुर्द,
जनपद-बाँदा।
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