जागो कर्मवीर
जागो कर्मवीर तुम जागो,
तन्द्रा मन की अब छोड़ो।
निष्ठा के पावन मंदिर में,
संगीत मधुर तुम तो छेड़ो।
निर्भय युक्त एक स्वर ध्वनि,
निःसृत फिर तव हलचल हो।
अन्तर बल पौरुष बल तेरा,
उसकी अब हुंकार जगा दे।
चल जय के पथ पर फिर,
आगत के अवरोध मिटा दे।
नियत न रोक सकेगी सपने,
जीवन का उद्देश्य सफल हो।
करुणा संयम और सेवा का,
स्वगत कर्म पथ अपना ले।
विस्तृत इस जग के आँगन में,
निज जन प्रिय नीड़ बना ले।
सृजन समर्पित कर दे जीवन,
संवेदना सत्व का सम्बल हो।
भावनिष्ठ बन निष्प्राण नहीं हो,
दिव्य भाव निज भर मन में।
तितिक्षा त्याग क्षमा संयम का,
समावेश कर नित जीवन में।
धीर वीर तू आत्म सबल बन,
अब मानवता हेतु विकल हो।
ज्ञान किरण करके विस्तृत,
शुभ आलोक प्रसारित कर दो।
अंधकार के बनकर हर्ता,
फिर सुविचार यहाँ भर दो।
आवृत्ति स्वार्थ छल छद्मों की,
छिन्न भिन्न अब विघटित हो।
व्यर्थ तुम्हारी जो भी भटकन,
निज अन्तराल में झाँको।
महत शक्ति अप्रतिम तुममें,
वरदान स्वयं से ही माँगो।
जागरण स्वयं का करते ही,
आलोक दिव्य उज्जवल हो।
तन्द्रा मन की अब छोड़ो।
निष्ठा के पावन मंदिर में,
संगीत मधुर तुम तो छेड़ो।
निर्भय युक्त एक स्वर ध्वनि,
निःसृत फिर तव हलचल हो।
अन्तर बल पौरुष बल तेरा,
उसकी अब हुंकार जगा दे।
चल जय के पथ पर फिर,
आगत के अवरोध मिटा दे।
नियत न रोक सकेगी सपने,
जीवन का उद्देश्य सफल हो।
करुणा संयम और सेवा का,
स्वगत कर्म पथ अपना ले।
विस्तृत इस जग के आँगन में,
निज जन प्रिय नीड़ बना ले।
सृजन समर्पित कर दे जीवन,
संवेदना सत्व का सम्बल हो।
भावनिष्ठ बन निष्प्राण नहीं हो,
दिव्य भाव निज भर मन में।
तितिक्षा त्याग क्षमा संयम का,
समावेश कर नित जीवन में।
धीर वीर तू आत्म सबल बन,
अब मानवता हेतु विकल हो।
ज्ञान किरण करके विस्तृत,
शुभ आलोक प्रसारित कर दो।
अंधकार के बनकर हर्ता,
फिर सुविचार यहाँ भर दो।
आवृत्ति स्वार्थ छल छद्मों की,
छिन्न भिन्न अब विघटित हो।
व्यर्थ तुम्हारी जो भी भटकन,
निज अन्तराल में झाँको।
महत शक्ति अप्रतिम तुममें,
वरदान स्वयं से ही माँगो।
जागरण स्वयं का करते ही,
आलोक दिव्य उज्जवल हो।
रचयिता
सतीश चन्द्र "कौशिक"
प्रधानाध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय अकबापुर,
विकास क्षेत्र-पहला,
जनपद -सीतापुर।
बहुत प्रेरणादायी रचना सर👌👌👍👍
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