नारी

छलनी है तन.....
          घायल है  मन,
उम्रकैद बना.....
          उसका जीवन।

आँखों में अश्रु.....
         घबराया सा चित्त,
मासूम सा चेहरा.....
         भावों से रिक्त।

रिश्तों से घिरी.....
         फिर भी बेसहारा,
समर्पण की ज्वाला के.....
         जीवन में अंधियारा।

है शक्ति स्वरूपा.....
          परन्तु  असहाय,
अत्याचारों की चरमता.....
          न उफ्फ.. न हाय।

निर्दोष जीव पर.....
         सवालों की बौछार,
हर दिन अपमान.....
        क्या तीज.. क्या त्योहार।

गुलामों सा जीवन.....
          मूकों सी भाषा,
पत्थर हृदयों से.....
          सहानुभूति की आशा।

डिग्रियाँ बेकार.....
          गुण निराधार,
अस्तित्व की हत्या.....
          आत्मसम्मान पर वार।

मतलब के रिश्ते.....
          नाम का घर,
उड़ान की चाहत....
          पर कटे हुए पर।

तानशाही परम्पराएँ.....
         और खोखला समाज,
नाउम्मीदी के समंदर में.....
         डूबता हुआ आज।

आज भी है.....
        नारी का ऐसा जीवन,
कल्पना भर से.....
        काँप उठता है मन।

क्या यही है सभ्यता.....
        ऐसे बनेंगे हम महान,
क्यों नहीं कर सकता समाज..
        नारी का सम्मान।

रचयिता
दीप्ति खुराना,
सहायक अध्यापक, 
जूनियर कम्पोजिट विद्यालय पंडिया,
विकास खण्ड-कुन्दरकी, 
जनपद-मुरादाबाद।

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