वो फटे जूते

एकदम से नज़र गयी,
निगाहें वहीं ठहर गयीं..
वो फटे जूते नहीं,
उनकी ज़िन्दगी की कहानी थे..
अनदेखी मेहनत और,
संघर्षों की निशानी थे..
मेरी एक वक़्त की रोटी भी,
उन फटे जूतों की गवाह थी..
उन्हीं फटे जूतों का कारण,
मेरी बीमारी की दवा थी...
मेरी कॉपी का आखिरी बचा पेज,
जब उनकी नज़र में आया था...
उनकी जेब का आखिरी 10 का नोट,
कॉपी की दुकान में काम आया था...
ठण्ड के मौसम में जब ...
मेरे फटे मोज़ों से मेरा,
अँगूठा बाहर आया था,
तब उनके फटे जूतों ने अपनी,
उम्र को और बढ़ाया था...
मेरा नासमझ बचपन,
ये समझ भी न पाया था...
उन फटे जूतों ने,
मेरी मुस्कुराहट से,
कैसे अपना रिश्ता निभाया था।
मेरी कही-अनकही चाहतों को,
उन फटे जूतों ने सिर आँखों बैठाया था।
उन फटे जूतों का क़र्ज़ मैंने,
ताउम्र चुकाया था,
क्योंकि उन फटे जूतों ने मुझे,
जीने का फ़लसफ़ा सिखाया था।

रचयिता
पूजा सचान,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय मसेनी(बालक) अंग्रेजी माध्यम,
विकास खण्ड-बढ़पुर,
जनपद-फर्रुखाबाद।

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