चाह है ऋषित्व के अवतरण की

चाह है ऋषित्व के अवतरण की इस धरा पर
फिर से गोपाल की वंशी गूंजे और सुदर्शन चक्र घूमे।

नहीं चाहता रहना अब मैं अधूरा-अधूरा
कर दो मुझे अब पूरा-पूरा
अब तो आओ और अंगीकार कर लो
धर्म का मार्ग मेरा प्रशस्त कर दो
भटक न जाऊँ अपने मार्ग से कभी
गिर न पाऊँ अपने चरित्र से कभी
सब छूटे लेकिन पवित्रता न छूटे
सपने टूटे लेकिन विश्वास न टूटे।

कई बार गिर के खड़ा हूँ इस बार
तूफान उठें मन में लेकिन न मानूँ हार
देखो कहीं अब मैं फिसल न जाऊँ
मन पवन से कहीं हिल न जाऊँ
चाहता हूँ सदा भला हो सभी का
मेरे कारण दिल न दुखे किसी का
अब तो मुझे राह दिखा ही दो
ऋषियों वाला मार्ग मिला ही दो।

बीत रहा है जीवन शीघ्रता से
बढ़ता रहम अब मैं तीव्रता से
न चाहूँ प्रतिष्ठा अपनी, न वैभव संपत्ति
सदा रहे सान्निध्य तुम्हारा चाहे आए कितनी विपत्ति

हों खुशहाल किसान और जवान
सदाचार से भरा हो हर एक इन्सान
हों निर्भय सभी जीव, वन और उपवन
यज्ञ की सुगंधि वाली बहे अब पवन
बस यही मैं चाहता हूँ
इसके लिए ही पुकारता हूँ।

चाह है ऋषित्व के अवतरण की इस धरा पर
फिर से गोपाल की वंशी गूंजे और सुदर्शन चक्र घूमे।

रचयिता
प्रतिभा भारद्वाज,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यामिक विद्यालय वीरपुर,
विकास खण्ड-जवां,
जनपद-अलीगढ़।

Comments

  1. सुन्दर अभिव्यक्ति

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  2. अध्यात्म की ओर बहती भाव धारा।
    आपको मेरा वंदन।
    सतीश चन्द्र"कौशिक"

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