दीपावली का दीप

दिल में कशिश है जोर की,
और किसको सुनाएँ दास्ताँ,
इस अंधेरे दौर की,
दीया जलाकर बैठे हैं,
है तलाश भोर की।

कानन में गूँजती आवाज,
निशाचरों  के शोर की,
ये सत्य की साधना है,
झिलमिलाती झालरें हैं,
और गंध है बारूद की।

 सुनते आए हैं हम सभी,
कथा राम रावण युद्ध की,
अब नहीं अवतार होगा,
स्वयं लड़नी है लड़ाई,
अपने अन्त:करण की। 

जल रहा दीपक युगों से,
है द्वंद्व  जीवन का वही ,
प्रज्ज्वलित हो मन प्राण,
उत्सर्ग की ये  भावना है,
जीवन सत्य - साधना है। 

रचयिता 
प्रदीप तेवतिया,
हिन्दी सहसमन्वयक,
विकासक्षेत्र-सिम्भावली,
जनपद-हापुड़।

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