खुद से पूछो

युगों से रावण को जलाते आ रहे
कितना मार पाए ये खुद से पूछो।
हर बुराई को रावण से जोड़ते आए
कितना राम बन पाए खुद से पूछो।
क्या आज स्त्री का हरण  नहीं हो रहा
कितना जटायु बन पाए खुद से पूछो।
सत्ता लोभ मे आज  प्रपंच रचे जा रहे
कितना भरत बन पाए खुद से पूछो।
घर-घर विभीषण हैं लंका ढहाने को
कितना लक्ष्मण बन पाए खुद से पूछो।
लक्ष्मण को रिझाती शूर्पणखा मिलती
कितना सीता बन पाए खुद से पूछो।
लोभ, मोह, लालसा लिए मंथरा खडी़
कितना शबरी बन पाए खुद से पूछो।
बिन इजाजत छुए न सतीत्व सिया का
इतना सा रावण बन पाए खुद से पूछो।

रचयिता
प्रेमलता सजवाण,
सहायक अध्यापक,
रा.पू.मा.वि.झुटाया,
विकास खण्ड-कालसी,
जनपद-देहरादून,
उत्तराखण्ड।

Comments

  1. बहुत सुंदर कविता

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  2. बहुत ही सुन्दर रचना मैम जी !! सचमुच हम सभी लोग दूसरे लोगों में ही बुराई देखते हैं, अपने गिरेबान में झांकने का प्रयास ही नही करते । खुद सुधरे , जग सुधरे । रावण तो बुराई का प्रतीक मात्र है । हमारे मन के भीतर का रावण जब तक नही मरेगा तब तक धरा से बुराईयो का सफाया नही होगा । देश मे रामराज्य के सपने को साकार करने के लिये हर व्यक्ति को राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न सुग्रीव और हनुमान बनना होगा ।

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