गर्व कैसे करूँ

प्रत्यंचा जब चढ़ी तुम्हारी,
दुष्टों का संहार किया
फिर खलुओं की सभा में तुमने,
मान कैसे हार लिया।
आर्यावर्त के शस्त्र सुनहरे,
तुम शस्त्रों के राजीव हो
भार्या की लाज न बचा सके,
फिर कैसे गान्डीव हो।
युद्ध भूमि में खड़ा वीर वह,
जब उलझा था रथ के पहियों में
फिर कैसे तुमसे तीर चल गया,
क्यों न उलझा वो डोरियो में।
एक से एक शस्त्र सुने हैं,
तुम शस्त्रों के ध्रुव तारा
एक निहत्थे को रण में,
फिर कैसे तुमने और क्यों मारा।
एक अकेले तरूण को जब,
घेरा था सप्त महारथियों ने
तब तीर कहाँ था तुम कहाँ थे,
खोये थे तुम किन गलियों में।
हे गान्डीव तब क्यों न की,
तुमने तीरों की बरसात
जब रणभूमि को आवश्यकता थी,
तब क्यों न दिया तुमने साथ।
जब जब खोजा समय ने तुमको,
तब तब तुम निर्जीव बने
हे कालखण्ड के शस्त्र श्रेष्ठ,
कैसे तुम गान्डीव बने।
फिर सारे शस्त्रों के बीच,
तुम पर मैं दर्प कैसे करूँ
हे गान्डीव, हे धनुष श्रेष्ठ,
तुम पर मैं गर्व कैसे करूँ।
             
रचयिता
कविता तिवारी,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय अलवलपुर,
विकास खण्ड-मनिहारी,
जनपद-गाजीपुर।

Comments

  1. सुन्दर शब्द चयन

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  2. बहुत उत्तम रचना कविता गुरु जी !! आपकी लेखनी वास्तव मे काबिल-ए-तारीफ है । बेशक जब हम अधिकार युक्त होकर भी उसका उपयोग किसी नेक काम मे न लगा सके तो अधिकारी कहलाने के हम हकदार नही हैंत । हम मानव कहलाने लायक तभी हैं जब हम मानवता को अपने दिल मे सजोएँ हुए हों ।पुरुषार्थी व्यक्ति कभी किसी के प्रति विद्वेष की भावना से प्रेरित नही होता है । कर भला, हो भला- यही भाव होना चाहिये अपने जीवन मे सम्मान और कीर्ति अर्जित करने के लिये ।
    दिल की गहराइयों से आपको ढेर सारी शुभकामनाएँ गुरु जी !!

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