उँगली पकड़ कर चलाते थे पापा
जब भी बुलाता था आते थे पापा,
उँगली पकड़ कर चलाते थे पापा।
देखकर मेरी आँखों में आँसू ज़रा,
मुझको गले से लगाते थे पापा।
माँग लेता मैं उनसे कुछ भी अगर,
जैसे भी हो लेकर आते थे पापा।
लाकर कपड़े नये हम सबके लिए,
दशहरा, दीवाली मनाते थे पापा।
खुश रहते थे वो पुराने पहनकर,
हँस कर हमें भी हँसाते थे पापा।
वो कहते थे मुझसे छू लो गगन,
तारे ज़मीं पर ले आते थे पापा।
आदर्शों की नित कहानी सुनाकर,
संस्कारों के भी गीत गाते थे पापा।
चलते हुए गिर जो जाता था मैं,
उठने का साहस जगाते थे पापा।
रचयिता
डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश',
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द,
विकास खण्ड-लक्ष्मीपुर,
जनपद-महराजगंज।
Comments
Post a Comment