बाल श्रम निषेध दिवस
चाहत थी बन ठन कर
पहन कर यूनिफॉर्म
मैं भी स्कूल जाऊँ
सपने अपने पूरे करने को
मैं भी किताबों में खो जाऊँ
कठिनाई जो पथ में आए
तनिक भी मैं ना उनसे घबराऊँ
आशा और विश्वास की
डोर थाम मैं आगे बढ़ते जाऊँ
पाकर अपने लक्ष्य को
मैं भी एक पल को इतराऊँ
पर मेरी यह चाहत तो
एक सपना बनकर रह गई
नन्हीं हथेली में किताबें ना कलम
इसकी तो बोझा उठाने की किस्मत बन गई
दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में
ये दब गए मजदूरी के पहाड़ में
खेला ना कूदा, ना देखे खिलौने
बनाए ना कभी मिट्टी के घरौंदे
उठाते हैं ये नित सर पर बोझा
जानते नहीं कोई काम दूजा
निहारते हैं आशा भरी निगाहों से
स्कूल जा रहे बच्चों को सामने से
काश यह मौका हमें भी मिल जाता
बचपन हमारा भी सँवर जाता
बोझा ढोकर पसीना ना बहाते
हम भी कामयाबी की राह पकड़ कर
सपनों को अपने साकार कर पाते
बाल मजदूरी करनी ना पड़ती
4 स्टार कंधे पर हम भी लगा पाते
या फिर सेना में जाकर हम भी
देश सेवा का मौका पा जाते
कठिन परिश्रम कर करके हम भी
आईएएस पीसीएस अफसर बन जाते
भाग्य ने हमको कहाँ खड़ा कर दिया
बस बाल मजदूर बना कर रख दिया
बाल मजदूर निषेध दिवस तो बन गया
क्या सच में हमारा भाग्य सँवर गया?
रचयिता
दीपा कर्नाटक,
प्रभारी प्रधानाध्यापिका,
राजकीय प्राथमिक विद्यालय छतौला,
विकास खण्ड-रामगढ़,
जनपद-नैनीताल,
उत्तराखण्ड।
Nice poem 🎉
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