हे पिता !

हे पिता! तुमसे मेरे अस्तित्व का आधार है।
मुझ अकिंचन पर तुम्हारे प्रेम का उपकार है।।

जब मैं जन्मा भी नहीं था; तुमने तब मेरे लिए,
सुख के साधन जोड़ने को; समर कितने ही लड़े।
मेरे तन पर धूप-बरखा-शीत की विपदा गिरे,
उससे पहले कवच बनकर; तुम मेरी खातिर डटे।आज जितना भी मेरे जीवन का यह विस्तार है।
मुझ अकिंचन पर तुम्हारे प्रेम का उपकार है।।

माँगता था नित्य तुमसे - दूर के तारे नए,
मेरी मुस्कानों की खातिर; तुमने वो लाकर दिए।
थे जो वस्त्रों से; खिलौनों से; मेरे बक्से भरे,
हैं बताते - काटकर तुम पेट हो कैसे जिए?
मेरी आशा के सुनहरे महल जो तैयार हैं।
मुझ अकिंचन पर तुम्हारे प्रेम का उपकार है।

चाहता; वात्सल्य-ऋण से मुक्त निज मानस करूँ,
विश्व की सर्वोच्च निधियाँ; ला तुम्हारे कर धरूँ।
चाहता; मैं पितृ-ऋण से उऋण होकर ही मरूँ।
सम्पदा; सम्मान दूँ या प्राण निज अर्पित करूँ।
पितृसेवा में मेरे जीवन का अब उद्धार है।
मुझ अकिंचन पर तुम्हारे प्रेम का उपकार है।।

हे पिता! तुमसे मेरे अस्तित्व का आधार है।
मुझ अकिंचन पर तुम्हारे प्रेम का उपकार है।।

रचयिता
सन्त कुमार दीक्षित,
प्रधानाध्यापक,
उत्कृष्ट मॉडल प्राथमिक विद्यालय - रनियाँ द्वितीय,
विकास खण्ड- सरवनखेड़ा,
जनपद- कानपुर देहात।
मोबाइल नम्बर- 7905691970.

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