माँ संस्कृत के पुत्र अभागे

संस्कृत माँ सब भाषाओं की,
तथ्य सभी को है स्वीकार
सम्मोहित कर देता सबको
मधुर देववाणी-उच्चार

संस्कृत में ही संरक्षित है
उन्नत-विद्या का भण्डार
संस्कृति है समृद्ध हमारी,
संस्कृत का हम पर उपकार

संस्कृत के ही द्वारा पहले
होता था शिक्षा-प्रसार
भाषा-मात्र नहीं थी यह,
इससे बनते थे संस्कार

लेकिन बदला समय तो बदले
आस्था, भाषा और विचार
संस्कृत का भी हुआ पराभव
जाति-धर्म के बढ़े विकार

आम आदमी दूर हुआ और
रहा ब्राह्मणों में प्रचार
संस्कृत हुई अनाथ, हिला जब
राज-आश्रय का आधार

मुग़लकाल में भाषा क्या,
सब बदल गये आचार-विचार
अंग्रेजों ने नीति बनायी
तोड़ो सब गौरव के तार

अंग्रेज़ों से पीछा छूटा,
आशाएँ तब बढ़ीं अपार
संस्कृत को सम्मान मिलेगा,
अब आयी अपनी सरकार

पर जिनको अपना समझा,
वे थे अंग्रेज़ी चाटुकार
मान नहीं अपमान मिला,
संस्कृत अब झेले नये प्रहार

काश! देख पाते हम इसकी
क्षमताओं के रूप अपार
बड़भागी हम, हमें मिला जो
संस्कृत का अनुपम उपहार

संस्कृत द्वारा जुड़ सकते
उत्तर-दक्षिण के बिखरे तार
माने हैं अनुकूल इसी को
कंप्यूटर के जानकार

पर हमने अपनी माता को
सिंहासन से दिया उतार
हाय! कितने हैं कृतघ्न हम,
उपकारों को दिया बिसार

झेले अब अस्तित्व का संकट
जो भाषा थी सदाबहार
हम बड़भागी हुए अभागे,
ठुकराया माता का प्यार

रचनाकार
प्रशान्त अग्रवाल,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय डहिया,
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी,
ज़िला-बरेली (उ.प्र.)

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