पर्यावरण संरक्षण में हमारी नैतिक भूमिका

क्या हम भावी पीढ़ियों के लिए कुछ छोड़े बिना ही दुनिया के सारे संसाधनों का इस्तेमाल कर लेंगे?? संसाधनों का अनिर्वहनीय उपयोग करते हुए हमें इस नैतिक प्रश्न पर विचार करना होगा। अगर संसाधनों का और जीवाश्म ईंधनों की ऊर्जा का दुरुपयोग होता रहा तो भावी पीढ़ियों के लिए निर्वाह बहुत मुश्किल हो जायेगा।
यह आवश्यक है कि पर्यावरण के मुददों पर आधारित एक मूल्य प्रणाली हमारी सोच का अंग बने। हमारे पूर्वज पृथ्वी को माता मानते थे। इसे बुनियादी तौर पर भुला दिया गया है। प्राचीन भारत मे वनों को पवित्र माना जाता था। बहुत से वृक्षों को केवल महत्व ही नही दिया जाता था बल्कि उसकी पूजा भी की जाती थी।

प्रकृति संरक्षण की नैतिकता की पुनर्स्थापना के लिए पर्यावरण शिक्षा और संरक्षण की जागरूकता की आवश्यकता है। इसका सबसे अच्छा उपाय यह है कि हम युवाओं को निर्जन स्थानों से प्राप्त प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी निर्भरता से परिचित करायें और साथ ही प्रकृति के अदभुत और सुन्दर पहलुओं की चेतना भी पैदा करें। अक्सर हम प्रकृति को नजरअंदाज करते हैं। हम सूर्यास्त के सौंदर्य को देखने या वन की अथाह शान्ति में बैठने, पक्षियों के गीतों को सुनने या पत्तों के बीच हवा की सरसराहट को सुनने का समय शायद ही निकालते हैं।

प्राचीन भारतीय परंपरा पर्वतों, नदियों, वनों और पशुओं को महत्व देती थी इसलिए प्रकृति के एक बड़े भाग का सम्मान और संरक्षण किया जाता था। अब समय आ गया है कि हम अपने बच्चों को प्रकृति से जोड़ें और पर्यावरणीय शिक्षा के द्वारा पर्यावरण संरक्षण में हम अपनी नैतिक भूमिका का निर्वहन करें।
"आओ आओ पर्यावरण बचायें।
सभी का जीवन बेहतर बनाएं।।"

लेखक
पीयूष चन्द्र श्रीवास्तव,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय सराय कासिम,
शिक्षा क्षेत्र-सैदपुर,
जनपद-ग़ाज़ीपुर।

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