जड़ सिंच गयी तो पत्ते अपने आप हरिया जाएँगे

सिस्टम की जड़ पर ध्यान दिया जाए तो सफलता के फलों के ढेर लग जाएँगे।

हम अपने-अपने विद्यालयों में काफी कुछ कर रहे हैं और उसका निस्संदेह बहुत महत्त्व है लेकिन ये सब कुछ एक छोटे से दायरे में ही सीमित है।

क्यों? 
क्योंकि सड़ा-गला सिस्टम हमें उस दायरे से निकलने ही नहीं देता और हम भी अपनी क्षमता-भर प्रयास से प्राप्त छिटपुट फल-प्राप्ति को नियति मानकर संतुष्ट हो जाते हैं।

जिस प्रकार बहुत ऊँचाई से देखने पर पौधे-पेड़ सब लगभग एक से नज़र आते हैं, वैसे ही यदि आज तक के अपने प्रयासों पर बहुत ऊँचाई से नज़र डालें तो अपवादों को छोड़कर कोई बड़ा परिवर्तन नज़र नहीं आता। क्योंकि सिस्टम की सड़ांध के आगे हमारे प्रयास बहुत बौने सिद्ध होते हैं। 

हम शिक्षकों को जड़ पर काम तो क्या, सलाह देने की भी अनुमति नहीं है, हमें सिर्फ तने, डालियों और पत्तों पर अधिकार देकर कहा जाता है कि फल गुणवत्तापूर्ण ज़रूर हो वर्ना....

व्यवस्था ऐसी है कि अपना सर्वोत्तम देने वाला शिक्षक भी खुद को कठघरे में खड़ा पाता है।

आज तक हमारे सभी संगठनों ने भी प्रायः 'शिक्षकों' के लिए तो आंदोलन-माँगें, धरना, प्रदर्शन किए (करना भी चाहिए) लेकिन 'शिक्षा' में सुधार के लिए कभी कोई आंदोलन नहीं किया। यदि किया होता तो सुधरी व्यवस्था में हमारा सम्मान स्वतः इतना होता कि हमारी हर बात को ध्यान से सुना जाता क्योंकि तब तो पेड़ की जड़ सिंच जाती।

हम सबको दुःख है कि बेसिक की छवि बहुत नकारात्मक है। अब प्रश्न यह है कि क्या केवल सीमित दायरे में सीमित प्रयासों से यह छवि सुधरने की अंतहीन प्रतीक्षा की जाये या उन नीतिगत विषयों पर अपनी आवाज़ बुलंद की जाये जो बेसिक की बदहाली के लिए कहीं अधिक निर्णायक हैं और जिनके सम्बन्ध में न हमसे विमर्श किया जाता है और न हमारी कोई सुनवाई होती है।

बच्चों की पढ़ाई, उनका पाठ्यक्रम, पढ़ाने के संसाधन, परीक्षा-प्रणाली, मुफ्त सुविधाओं की समीक्षा, शिक्षण में आने वाली समस्याएँ, ग्रामीण परिवेश की समस्याओं का निदान, उपलब्ध विकल्प, विद्यालयी व्यवस्था में ढांचागत सुधार; क्या इन सब मामलों में नीति बनाते समय उन शिक्षकों की नहीं सुननी चाहिए जो ज़मीन पर काम कर रहे हैं, हालात से अच्छी तरह वाकिफ हैं और रोज़ इनसे जूझते हैं?

क्या किया जाये?

'मिशन शिक्षण संवाद' जो शिक्षक पर नहीं, शिक्षण पर फोकस करता है, और जिसकी एक सकारात्मक छवि है, उससे एक अपेक्षा है (यदि उचित लगे) 

जहाँ-जहाँ मिशन को उचित मंच मिले (या फिर स्वयं पहल करके) वहाँ-वहाँ वह यथाशक्ति शिक्षा संबंधी नीतिगत मामलों की चर्चा चलाये, शासन तक पहुँचाने की कोशिश करे, एक ऐसी व्यवस्था बने जिसमें कोई भी नीति बनते समय उस व्यक्ति/संगठन को विशेष रूप से सुना जाए, नीति-निर्माण में सहभागी बनाया जाये जो बिलकुल धरातल पर काम कर रहा है और सभी की नज़र में निष्ठावान भी है। तभी हमारी नीतियां भी ज़मीन से जुड़कर जड़ को मजबूती दे सकेंगी।

और अगर जड़ मजबूत हो गयी, तब तो...

लेखक
प्रशांत अग्रवाल,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय डहिया,
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी,
जिला बरेली (उ.प्र.)।

Comments

  1. Very true This is what our basic system needs

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  2. Sir iske liye sabse pahle buniyadi dhancha majboot krna hoga yadi acchi gunvatta chahiye to mere hisab se pahle shikhakon ki poorti hona aawasyak h kyoki ek akela vyakti sab kuch nhi kr sakta.private schools me prep se 1st tak 2 teachers ka ratio hota h tab 3 saal me jakar baccha base clear krta h gov.me to sir ji 1st se hi bacche ko hindi aa jaani chahiye chahe wahan teachers ho ya nhi chahe kagji kaam ho ya nhi gunwatta park shikha chahiye to sabse jaruri h ki hr class ko ek teacher milna chahiye fir dekhiye sir dhancha majboot hoga hoga hoga.

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  3. बहुत बढ़िया लेख नीति बनाने वालों को इस पर ज़रूर ध्यान देना चाहिए एकदम सही बात

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