कथनी-करनी
बात तीन-चार साल पहले मई की है मैं अपने विभाग की एक बैठक में थी बात चल रही थी 6-14 वय वर्ग के बच्चों की शत-प्रतिशत नामांकन की। बैठक चूँकि जिले स्तर की थी इसलिए सभी वि० क्षे० से शिक्षक लोग आए हुए थे। हमारी अधिकारी महोदया बार-बार हम लोगों को निर्देश दे रहीं थीं ढाबों पर जाओ, भट्टों पर जाओ अभिभावकों से सम्पर्क करो, कोई बच्चा नामांकन से वंचित न रहे। गाँव में प्रतिदिन घूमो बच्चों को बुलाकर स्कूल लाओ, माता-पिता को जागरुक करो आदि।बैठक की समाप्ति से पूर्व सूक्ष्म जलपान की व्यवस्था थी।जलपान में चाय-समोसा लेकर आने वाला 10-11 साल का बच्चा बेसिक स्कूल की ड्रेस पहिने था। बाल शिक्षा की बातें अनवरत अब भी जारी थीं। बच्चा कई बार बैठक हॉल में आया पर हमारी अधिकारी महोदया और न ही किसी अन्य ने कोई टीका-टिप्पणी की। मेरे मन में आ रहा था कि बच्चे से बात करूँ पर सामने बैठी अधिकारी का डर रोक रहा था। जब बार-बार वो बच्चा हॉल में आता रहा तो मुझसे नहीं रहा गया और मैंने बच्चे को पास बुलाकर पूछा कहाँ पढ़ते हो। मैंने जान बूझकर तेज आवाज में बच्चे से वार्तालाप किया। बैठक में शामिल लोग मुझे यह कर रोकने लगे मैम बातें बाद में कर लेना। मैंने भी हँसकर बोला देखिए सर-मैम, मैंने एक बच्चा नामांकन के लिए यहीं ढूँढ लिया, क्या इस बच्चे को स्कूल में नहीं होना चाहिए?अब तक अधिकारी महोदया मेरी बात का आशय समझ चुकी थीं, उन्होंने फौरन चपरासी को बुलाकर उस बच्चे के पिता (चाय वाले)को बुलाकर पहले तो डाँटा फिर समझाया कि बच्चे को काम पर न लगाकर स्कूल भेजो। अब बैठक पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो चुकी थी या कहो सही मायनों में सफल हो चुकी थी। इसी अफरा-तफरी के माहौल में ऑफिस के लोगों को भी हिदायत के साथ डाँट लगी कि अब से किसी बैठक/कार्यक्रम में कोई बच्चा कार्य नहीं करेगा। कुछ समय पहले तक जो लोग मुझे शांत रहने को बोल रहे थे अब इशारे से शाबाशी दे रहे थे, तो कोई मैसेज से तारीफ कर रहा था। मैं बिना किसी डर के उस बैठक से इस संतोष के साथ बाहर आई कि मैंने व्यवहारिक रूप से बैठक में प्रतिभाग किया।
लेखक
राजबाला धैर्य,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय बिरिया नारायणपुर,
विकास खण्ड-क्यारा,
जनपद-बरेली।
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