वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई

देश धर्म की बलिवेदी पर
जिसने दी कुर्बानी थी।
बुंदेली गौरव की गाथा
वह झाँसी की रानी थी।

बाँध पीठ पर दामोदर को
रण में करने युद्ध चली।
दोनों हाथों में शमशीरें,
रणचंडी बन महाबली।

अपनी झाँसी कभी न दूँगी
प्रण ऐसा जो ठानी थी।
बुंदेली गौरव की गाथा..

अठरा सौ सन्तावन की
वह अनबूझ पहेली थी।
भाला, तीर, कटारें, बरछी
उसकी परम सहेली थीं।

कूदी ले तलवार समर में
भीषण रण फिर ठानी थी
बुंदेली गौरव की ....

गद्दारों ने गद्दारी की और
दुर्ग द्वार को खोल दिया।
फिर रानी अश्व आरूढ़ हुई
दुर्ग से छलांग लगा दिया।

किया समर भयंकर रानी
ने वह नारी नहीं भवानी थी
बुंदेली गौरव की गाथा--

तात्या को अपने साथ लिया
ग्वालियर दुर्ग को जीता था।
लेकिन दुश्मन था बलशाली
जी उनका कर रहा पीछा था।

संघर्ष किया अंतिम क्षण तक,
दुश्मन को बड़ी
हैरानी थी।
बुंदेली गौरव की गाथा..

जब घोड़ा अड़ गया नाला पर
रानी ने जाना अंत समय।
वह तेज पुंज सी चमक उठी
मन में संशय न कोई भय।

अब मातृभूमि की रक्षा में
देनी अपनी कुर्बानी थी
बुंदेली गौरव की गाथा..

रचयिता
राजकुमार शर्मा,
प्रधानाध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय चित्रवार,
विकास खण्ड-मऊ,
जनपद-चित्रकूट।

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