मुसाफिर

मुसाफिर आते हैं यहाँ
हमेशा कुछ दिनों के लिए,
मिलते हैं लोग यहाँ
बिछड़ने के लिए।

ऐ मन तू क्यों रंज करे
मुसाफिरों के जाने से,
पंछी  छोड़ उड़ते ही हैं
बने बनाये रैन बसेरे से।

कलियाँ कब रोती हैं?
पत्तियों के गिरने से,
नदियाँ पीछे कब देखती हैं
मुड़कर आगे बहने से।

सागर कब दुख करता है
पानी भाप बनकर उड़ने से,
धरती कब डरती है
सांझ ढलने पर निशा से।

अंधेरी रात बीतने पर ही
आता है नया सवेरा,
हमेशा कोई रहता नहीं
सबका कुछ दिन का डेरा।

स्वर्ण जो अग्नि में तपता
वही गले का हार बनता,
गम को जो है अपनाता
खुशियाँ अनंत वही पाता।

विपदाओं में जो धैर्य न खोते
बाधाओं से लड़कर बढ़ते जाते,
पथ से विचलित कभी न होते
यश कीर्ति वही जीवन में पाते।

रचयिता
रंजना डुकलान,
सहायक अध्यापक, 
राजकीय प्राथमिक विद्यालय धौडा़,
विकास खण्ड-कल्जीखाल,
जनपद-पौड़ी गढ़वाल,
उत्तराखण्ड।

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