जीवन का होना

यूँ तो टूटना ही है एक दिन साँसों की माला को,
पर अच्छा लगता है साँसों के थमने से पहले जीवन का होना।
 यूँ तो बुरा नहीं लगता मौसम पतझड़ का,
पर अच्छा लगता है बसंत में धरा का धानी होना।
यूँ तो एक रवायत है सांझ के सूरज का ढलना,
पर अच्छा लगता है सूर्य की किरणों का चमकना।
यूँ तो बुरा नहीं लगता प्रतिक्षण कोई जाल बुने,
पर अच्छा लगता है चाल के जाल का कोई ढाल बने।
यूँ तो हिस्सा है जीवन का तम के बादलों का छाना,
पर अच्छा लगता है आशा की बूँदों का बरस जाना।
यूँ तो बुरा नहीं लगता निंदा के बोलों को सुनना,
पर अच्छा लगता है प्रशंसा के दो बोलों का कानों में घुलना।
यूँ तो फितरत है जमाने की बंदिशें  रोकना टोकना,
पर अच्छा लगता है किसी  का 'किसने रोका है' ये बोलना।
 यूँ तो बुरा नहीं लगता चांद पर पहुँचना,
पर अच्छा लगता है परंपराओं में बंधे रहना।
यूँ तो आसान नहीं हर वेदना को शब्दों में पिरोना,
पर अच्छा लगता है किसी का मेरी  उलझनों को पढ़ना।
यूँ तो बुरा नहीं लगता आँखों की कोरों से खारे पानी का बहना,
पर अच्छा लगता है खारे समुंदर का आँखों में ही रहना।
बह तो जाना है एक दिन वक्त की धारा में सबको,
पर अच्छा लगता है धारा में बहने से पहले साँसों का जीवन में होना।।

रचयिता
अनुराधा दोहरे,
प्रधानाध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय नगरिया बुजुर्ग,
विकास खण्ड-महेवा,
जनपद-इटावा।

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