NGOs की 'मास्टरी'

NGOs की 'मास्टरी'
पर
मास्टर की 'खरी-खरी'

कमाल का दौड़ेंगे हुज़ूर, ज़रा बेड़ियाँ तो खोलिए

बेसिक बदहाल है, तो वो हमें पढ़ाना सिखाते हैं
माना, हम बहुत कुछ नया सीख भी जाते हैं

मगर हुज़ूर, असली समस्या पढ़ाने में नहीं है
पढ़ाई का समय गैर-शैक्षिक कार्यों में खपने की है
एक शिक्षक, अनेक कक्षाओं से निबटने की है।

अभी तो हम कई पाटों के बीच पिस रहे हैं
क्षमताएँ और ऊर्जा फिजूल के कामों में घिस रहे हैं।

प्रधानों की सरपरस्ती,
अभिभावकों की सुस्ती,
अनबूझ नियमों के झाड़,
नित सूचनाओं की बाढ़

जूते, स्वेटर, बस्ते, ड्रेस
पुस्तक, गोली, राशन, गैस
माँगो, लाओ, चढ़ाओ, बाँटो
सबको सुनकर, सबको साधो

रसोइया का चयन, उसे निभाना
स्वीपर से निष्फल आस लगाना
SMC का गठन, बैठकें
BLO के झगड़े-टंटे

भाँति-भाँति की खरीद, मरम्मत
सामग्री ढोना, बिल की दिक्कत
तरह-तरह के ढेरों सर्वे
छोड़ पढ़ाई शिक्षक भटके

लाइब्रेरी, खेल का सामान
खरीद-प्रयोग में कई काम
ये प्रशिक्षण, वो प्रशिक्षण
अटका-अटका कक्षा शिक्षण

मान्यवर, पहले हमें उचित ढाँचा तो दीजिए
फिर जी-भरकर हमारी परख कर लीजिये

हाँ, मानता हूँ, शिक्षक भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं
लेकिन सिस्टम के मुख्य दोष स्वीकारने को कौन तैयार है?

ज़मीन से बोलता व्यथित शिक्षक

रचनाकार
प्रशान्त अग्रवाल,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय डहिया,
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी,
ज़िला-बरेली (उ.प्र.)

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