विडंबना

छोटे-छोटे कदमों से वह स्कूल में आया था,
न कोई उम्मीद, न कोई सपने लाया था।
डरा सहमा सा माँ के आँचल में छुप जाता,
मैडम के कुछ पूछने पर आँसू भी गिराता।

एक फटा सा कुरता, दो रंग की चप्पल थी,
मैडम! ड्रेस तो मिलेगी? माँ की उलझन थी।
ड्रेस, खाना, किताबें, बैग, जूते भी मिलेंगे,
पर रोज स्कूल आना, तभी हम देंगे।

फिर एक मैडम आईं पूछा, "नाम क्या है?"
उसने कहा चिंटू तो बोलीं,"रोज स्कूल आना।
उनके इशारे पर वह पट्टी पर बैठ गया,
फिर भौंचक हो पूरी कक्षा को देखता रहा।

कमरे में बहुत से रंग-बिरंगे चार्ट सजाये थे,
पर तब तो बस चित्र ही समझ आये थे।
रोज-रोज आने पर अक्षर भी पहचाने,
साथ साथ गिनतियों के मायने भी जाने।

अब वह रोज स्कूल आने लगा था,
अब स्कूल उसको भाने लगा था।
कभी गंदा तो कभी साफ आता था,
कभी-कभी मैडम से डाँट खाता था।

चिंटू! कपड़े कितने गंदे हैं तुम्हारे,
माँ ने तुम्हारे बाल क्यों नहीं संवारे?
रोज फटे कपड़ों में चले आते हो,
माँ से कपड़े क्यों नहीं सिलवाते हो?

कैसे बताता वो मैडम को,
माँ तो सुबह ही काम पर चली जाती है।
बड़ी बहन तो है, पर घर के सारे काम,
चूल्हा चौका वही तो निपटाती है।

आज कक्षा 5 का विदाई समारोह है,
आज उसे स्कूल छोड़कर जाना होगा।
ककहरा से कहानी, अंकों से सवालों तक,
जो सीखा उसने, आगे बढ़ाना होगा।

आज एक महीना हो गया, वो नहीं लौटा,
टी. सी. के बगैर कहाँ दाखिला लिया होगा?
पता करने गए तो वो शहर जा चुका था,
और उसका बस्ता घर की खूंटी पे टंगा था।

रचयिता
डॉ0 रेखा सिंह यादव,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय पिपरिया,
विकास खण्ड-भोजीपुरा,
जनपद-बरेली।

Comments

  1. बहुत ही सुन्दर नैसर्गिक और सार्थक पंक्तियाँ

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