एक दिन का मातृ दिवस

ऐ माँ !
मैं तुझे एक दिन में समेटूँ कैसे
जबकि जानता हूँ कि
मेरे रग-रग का, जग के कण-कण का
बिना तेरे कोई वजूद ही नहीं

नादां हैं वे लोग जो ममता को दिनों में बाँधते हैं
भला  हवा भी कैद हुई है कभी
और बिना हवा के जीवन जिया है कोई

जमाने का चलन भी निराला हो गया है
चेहरा गोरा, दिल काला हो  गया है
एक दिन ही सही
कम से कम माँ की याद तो करते हैं लोग
वरना आजकल तो झूठी शान का बोलबाला हो गया है

धन्य हैं वो फुटपाथ पर रोने वाले
जो आज भी बिना माँ के खाना नहीं खाते
वरना राज ने तो अक्सर अमीरों की माँ का
बँटवारा होते देखा है
या देखा है किसी वृद्धाश्रम में
भूखी, लाचार, बेबस, असहाय

रचयिता
विजय नारायण गर्ग,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय खड़िया,
विकास क्षेत्र-मिहींपुरवा,
जनपद-बहराइच।

Comments

  1. गुड मेरे दोस्त
    तुम लाजवाब हो

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