मलेथा की गूल
मध्य गढ़वाल की घाटियों में,
एक गाँव मलेथा था।
उसी गाँव में एक युवक,
माधोसिंह रहता था।
गाँव के दोनों तरफ से,
नदियाँ दो बहती थीं।
बीच में खड़े पहाड़ से,
धरती प्यासी रहती थी।
गाँव में पानी आए कैसे?
माधोसिंह सोचा करता था।
जब भी वह गाँव के बंजर,
खेतों को देखा करता था।
एक दिन वह पत्नी से बोला -
हम सुरंग बना सकते हैं।
पानी लाकर सुरंग से,
खेतों को हरा हम कर सकते हैं।
माधोसिंह ने किया प्रतिज्ञा,
सुरंग एक बनाऊँगा।
जब तक शरीर में खून रहेगा,
मेहनत करता जाऊँगा।
गैंती फावड़ा लेकरके,
मेहनत वह दिन रात किया।
देखते - देखते हफ्ता गुजरा,
काफी सुरंग वह खोद दिया।
उसकी मेहनत देखके बच्चों,
कुछ लोगों ने साथ दिया।
माधोसिंह ने साहस से,
गूल का यों निर्माण किया।
माधोसिंह की मेहनत को,
दुनिया सलाम आज करती है।
मलेथा के गाँव में फसलें,
उसकी गाथा कहती हैं।
रचयिता
एक गाँव मलेथा था।
उसी गाँव में एक युवक,
माधोसिंह रहता था।
गाँव के दोनों तरफ से,
नदियाँ दो बहती थीं।
बीच में खड़े पहाड़ से,
धरती प्यासी रहती थी।
गाँव में पानी आए कैसे?
माधोसिंह सोचा करता था।
जब भी वह गाँव के बंजर,
खेतों को देखा करता था।
एक दिन वह पत्नी से बोला -
हम सुरंग बना सकते हैं।
पानी लाकर सुरंग से,
खेतों को हरा हम कर सकते हैं।
माधोसिंह ने किया प्रतिज्ञा,
सुरंग एक बनाऊँगा।
जब तक शरीर में खून रहेगा,
मेहनत करता जाऊँगा।
गैंती फावड़ा लेकरके,
मेहनत वह दिन रात किया।
देखते - देखते हफ्ता गुजरा,
काफी सुरंग वह खोद दिया।
उसकी मेहनत देखके बच्चों,
कुछ लोगों ने साथ दिया।
माधोसिंह ने साहस से,
गूल का यों निर्माण किया।
माधोसिंह की मेहनत को,
दुनिया सलाम आज करती है।
मलेथा के गाँव में फसलें,
उसकी गाथा कहती हैं।
रचयिता
मनोहर लाल गौतम,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय कनिगवाॅ,
विकास खंड -बीसलपुर,
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