परम्परा
गोबर और पीली मिट्टी के मेल से बखरी की पुताई हो चुकी थी...
एक डंडे में बँधे कपड़े को लाल रंग में डुबो-डुबोकर मँझली बुआ बखरी की दीवार पर कुछ लिख रही थी
...शु.....भ
शुभ विवाह!
हाँ आज बबुआ का विवाह था
सारे घर में शोर, उत्सव था। सब खुद को ज़रूरत से ज्यादा व्यस्त दिखा रहे थे
बस एक औरत आँगन के कोने में चुपचाप बैठी थी..
लाली काकी....बबुआ की अम्मा
तो क्या हुआ जो लाली काकी के आदमी ने अपनी आखिरी साँसें चिकउ कसाई की गुमटी के सामने ली। मधुशाला से कई आदमी अचकचाहट के साथ निकले थे जब वह ज़मीन पर गिरे थे।
काका के हाथ में ठीक वैसी ही शीशी थी जैसी वहाँ खड़े बाकि आदमियों के पास!
तो क्या हुआ काका, काकी के मरद थे न! और मरद के मर जाने पर औरत का किसी शुभ काम को करना अपशगुन होता है...ऐसी परंपरा है!
काकी हर रसम में कुछ दूरी पर खड़ी रहती...फिर चाहें वो डीह बाबा/चउरा माइ का पूजन हो या सतनारायण की कथा हो।
बारात विदा होके आ चुकी थी
'चअल अम्मा दुलहिन उतार लअ'...गाँव की एक पतोहू ने कहा।
"तोहार दिमाग खराब हउ का, एन कइसे उतरिहिं"...गाँव की एक बुजुर्ग अम्मा ने कहा, 'पुरखन क मान सम्मान/परंपरा भी कुछ होथअ की नाही ?' काकी की तरफ देखते हुए वो बोली!
...काकी की होंठो पर दर्द था पर उनकी आँखें किसी को दोष नहीं दे रही थीं क्यूँकि वो मान चुकी थीं कि पुरुखों की परंपरा है तो गलत कैसे हो सकती है!
लेखक
पुनीत मौर्य,
कंप्यूटर अनुदेशक,
अभिनव पूर्व माध्यमिक विद्यालय भन्नौर,
विकास खण्ड-बरसठी,
जनपद-जौनपुर।
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