बहन का ब्याह

आज फिर झुँझलाये से घर आये पिताजी
बारहवीं बार वही बात दुहराये पिताजी
"पहले कहते हैं सुन्दर और पढ़ी लिखी हो
हो जाए जब ये दोनों मुराद पूरी
तो कहते शगुन है थोड़ी अधूरी"
ब्याह न हुआ
मेरी सब्जी का ठेला हो गया
खुला रेट है बाज़ार में
होता है मोलभाव भी
मुट्ठी भींचे सिर झुकाये
कुछ क्षण ख़ामोश पिताजी
अब हमें कुछ 'समझौता' करना ही होगा
कहीं न कहीं दबना ही होगा
बुदबुदाये पिताजी
....समझौता
कहते-कहते उनके लफ्ज़ लड़खड़ाये
बरसों से ऊँची रही आवाज़
अचानक अपाहिज सी हो गयी
सँभालते हुए मैंने कहा तो चलिए
देखेंगे अगले साल
"इ शहर नहीं गाँव है बचवा" यहाँ
लड़की की उमर 'इक्कीस' से आगे बढ़ी
तो लोगों की ज़ुबान चढ़ी
समय के साथ रेट बढ़ेगा सो अलग
...ब्याह का रेट
निरुत्तर था मैं
तभी अँधेरे को छाँटकर रोशनी छायी
बहन कमरे में लालटेन लायी
उसकी पीली आँच में
पिताजी के झुलसे चेहरे को देखता हूँ
इन सबसे बेखबर सरसों सी खिली
बहन की मुस्कान देखता हूँ
"बहन का ब्याह एक समझौता"
रेट लगाने वालों के साथ-साथ
इस परम्परा को कसूरवार देखता हूँ

रचयिता
पुनीत मौर्य,
कंप्यूटर अनुदेशक,
अभिनव पूर्व माध्यमिक विद्यालय भन्नौर,
विकास खण्ड-बरसठी,
जनपद-जौनपुर।

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