होली की गाथा

होली की गाथा सुनाऊँ,
क्यों मनाते हैं बात बताऊँ।
हिरण्यकश्यप नाम का था राजा,
खुद को भगवान मानने में आता मजा।

पुत्र प्रह्लाद न भगवान समझता था,
विष्णु भगवान का भक्त कहलाता था।
पिता को ये बात न स्वीकार हुई,
होलिका बहन से फिर बात हुई।

प्रह्लाद को मारने के जतन हुए,
विष्णु भगवान को न स्वीकार  हुए।
हर प्रयास हुए  विफल,
प्राण बचाने में हुए सफल।

होलिका को मिला था वरदान,
कोई आग न ले पाएगी जान।
भाई-बहन को याद आयी बात,
फिर योजना की हुई शुरुआत।

प्रह्लाद को ले आग में बैठ गई,
प्रह्लाद तो बच गया खुद राख हुई।
भगवान विष्णु ने बचा लिया,
बुरे को परिणाम बुरा दिया।

तभी से प्रथा चली आयी,
हर वर्ष होली जलती आयी।
बुराई पर अच्छाई की जीत हुई,
बुराई कभी न जीत पायी।

होलिका दहन के अगले दिन,
रंग बिरंगे रंगों का आये दिन।
मिलकर सब मनाते हैं,
एक दूजे के घर जाते हैं।

प्यार के रंग बरसाते हैं,
जमकर गुलाल उड़ाते हैं।
गुंजियाँ, चाट खाते हैं,
पापड़ भी खूब बनाते हैं।

गले मिले तो दिल के मैल हटे,
प्यार और स्नेह से दिल मिले।
एकता के सूत्र में पिरोता है,
होली त्यौहार अनोखा है।

रंगों की बौछार, प्यार की बहार,
प्राकृतिक रंगों से करो प्यार।
बच्चों की पिचकारियाँ शानदार,
मुबारक हो पावन होली का त्यौहार।

रचयिता
रीना सैनी,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय गिदहा,
विकास खण्ड-सदर,
जनपद -महाराजगंज।

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