124/2024, बाल कहानी -23 जुलाई
बाल कहानी- हिम्मत और साहस
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मदनलाल अपने परिवार के साथ गुजर बसर कर रहे थे। उनकी आर्थिक स्थिति नाजुक थी। दो बेटी थी और तीन बेटे। सभी बच्चे प्राइमरी स्कूल में पढ़ रहे थे। मदनलाल एक किसान थे। दो बीघा जमीन उनके पास थी। कैसे भी करके फसल को काटते और बो देते थे। उसी से अपने परिवार का गुजारा करते थे। माँ कपड़ों की सिलाई करती, जिससे घर के खर्च में सहायता मिलती थी। समय गुजरता गया। बच्चे बड़े होने लगे और शादी के योग्य होते जा रहे थे। मदनलाल को चिन्ता सता रही थी कि बेटियों की शादी कैसे होगी? उनकी बड़ी बेटी इण्टर की पढ़ाई कर रही थी और छोटी हाई स्कूल में थी। बेटे छोटे थे। वह जूनियर स्कूल में पढ़ रहे थे। बड़ी बेटी ने इण्टर के बाद आई० टी०आई० की और नौकरी करने की तलाश करने लगी। गाँव के बच्चों को ट्यूशन देती थी।
एक दिन बड़ी बेटी का रिश्ता आया और उन्होंने दहेज की माँग की, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं की। उन्होंने मना कर दिया तो लड़के वालों ने शादी के लिए भी मना कर दिया। बड़ी बेटी को बहुत बुरा लगा और उसने पिताजी से कहा कि-, "पिताजी! हमें अपने पैरों पर खड़ा होना है।" पिताजी ने 'हाँ' कह दिया और बेटी की नौकरी एक प्राइवेट कम्पनी में लग गयी। मदनलाल की आर्थिक स्थिति अच्छी होती जा रही थी। जिस कम्पनी में वह काम करती थी, वहाँ एक लड़के ने उसके समक्ष शादी का प्रस्ताव रखा, लेकिन बेटी ने कहा कि-, "मेरे पास दहेज नहीं है।" लड़के ने अपने माता-पिता से कहा-, "माता-पिता लड़की को देखकर राजी हो गये और उन्होंने बिना दान दहेज के साथ शादी की। एक साल के बाद बड़ी बेटी अपने बहन-भाइयों को लेकर चली गयी। वहाँ उसने उनकी उचित पढ़ाई करवायी। छोटी बेटी की शादी बड़ी धूमधाम से हुई। उसने दोनों बेटों को एक दुकान खुलवा दी। बड़ी बेटी की हिम्मत और सब के साथ मदनलाल का परिवार खुशहाल हो गया। उन्होंने अपनी बेटी को हिम्मत और साहस की शाबाशी दी।
संस्कार सन्देश-
यदि बेटी पढ़-लिखकर पैरों पर खड़ी होती है तो बेटों से कम नहीं होती है। इसलिए बेटियों की शिक्षा पर हमें जोर देना चाहिए।
लेखिका-
पुष्पा शर्मा (शि०मि०)
पी० एस० राजीपुर, अकबराबाद
अलीगढ़ (उ०प्र०)
कहानी वाचक-
नीलम भदौरिया
जनपद- फतेहपुर (उ०प्र०)
✏️संकलन
📝टीम मिशन शिक्षण संवाद
नैतिक प्रभात
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