119/2024, बाल कहानी- 16 जुलाई


बाल कहानी- नानी का गाँव
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बात अभी कुछ दिन पहले की ही है। भयंकर गरमी पड़ रही थी। इतनी लू चल रही थी कि बाहर निकलना भी मुश्किल था। घर के अन्दर भी चैन नहीं पड़ रही थी। राजू शहर से अपने नानी के गाँव आया हुआ था। उसके नानी का गाँव शहर से कुछ ही दूरी पर था। गाँव के ज्यादातर घर अधपक्के ही थे। कुछ घर तो कच्ची मिट्टी के ही बने थे। उनकी छतें व दीवारें सब कच्ची ही थीं। दीवारों पर फूस के छप्पर पड़े थे। राजू बहुत दिन बाद नानी के गाँव आया था। उसकी माँ कह रही थी कि इसके पहले जब वह आया था तो वह बहुत छोटा था। वह उसे गोदी में लेकर आयी थी। राजू को तो याद ही नहीं है कि वह कब आया था?
राजू गाँव के घरों को देखकर बड़ा अचरज कर रहा था कि ये घर कैसे बने हैं? उसने अपने ममेरे भाई सोनू से कहा कि-, "हमारे शहर में तो सभी के घर पक्के हैं। रंगे-पुते हैं। दो-तीन मन्जिला से कम तो किसी का घर ही नहीं है। लान में गमलों में सुन्दर-सुन्दर पौधे लगे हैं। लोहे व स्टील के झँगले-जाली और दरवाजे सभी बड़े मजबूत व अच्छे हैं। सभी के घरों में कूलर व एसी लगे हुए हैं। गरमी का तो वहाँ एहसास ही नहीं होता है। आराम से रात को ठण्डक में सोते हैं। दिन में भी घर से बाहर नहीं निकलते हैं। हमारा शहर तो बहुत अच्छा है।"
राजू की बात सुनने के बाद सोनू बोला-, "भैया! आपका शहर तो बहुत अच्छा है, पर यह बताओ भइया, जैसे अभी हम लोग के घर बाहर बैठकर बातें कर रहे थे, क्या तुम्हारे शहर में इस समय घर के बाहर बैठ सकते हैं? नहीं न? अच्छा आओ, अब दोपहर हो गयी है। आराम करते हैं। सोनू राजू को अपने साथ घर के बरोठ में ले गया। वहाँ उसकी दादी, मम्मी तथा चाची जमीन पर कथरी बिछाकर आराम कर रही थीं। वे दोनों भी उन्हीं के पास लेट गये।
बरोठ का एक दरवाजा आँगन की ओर खुलता था और दूसरा दरवाजा बाहर द्वार की ओर। हवा धीरे-धीरे आ-जा रही थी। बाहर तो बहुत गरमी थी, पर यहाँ तो गरमी लग ही नहीं रही थी।
कुछ देर बाद गौरैया बरोठ में आने लगीं। उनके घोंसले छत की धन्नियों के बीच बने हुए थे। उनमें गौरैया के छोटे-छोटे बच्चे थे। गौरैया को आते देखकर वे सब चूँ-चूँ करने लगे। गौरैया उनको दाना चुगाने लगीं। यह दृश्य देखकर राजू सोचने लगा कि शहर से अच्छा तो नानी का गाँव है। यहाँ एसी-कूलर के बिना भी गरमी का पता नहीं चलता। वहाँ तो बिजली चले जाने पर लगता है कि जान ही निकल जायेगी। गौरैया तो वहाँ दिखाई ही नहीं पड़ती हैं। काश! मेरा घर भी गाँव में ही होता!

संस्कार सन्देश-
गाँव का जीवन सरल और सहज तथा आनन्ददायक होता है। यहाँ जैसी शुद्ध हवा और पक्षियों का कलरव शहर में कहाँ?

लेखक-
रामचन्द्र सिंह (स०अ०)
प्रा० वि० जगजीवनपुर -2
ऐरायाँ - फतेहपुर (उ०प्र०)

कहानी वाचक-
नीलम भदौरिया
जनपद- फतेहपुर (उ०प्र०)

✏️संकलन
📝टीम मिशन शिक्षण संवाद
नैतिक प्रभात

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