शिक्षक और बचपन

शिक्षक बचपन को फिर से जीते हैं,

नन्हीं आँखों में अपने ही सपने बुनते है।

नटखट शरारतों व मासूम हँसी में,

कहीं ना कहीं अपना ही बचपन ढूँढते हैं।


टन टन नाती घंटी, दौड़ते बच्चे,

प्रार्थना के स्वर, कक्षा का शोर।

मध्यान्ह भोजन का उत्साह,

सब ले जाते हैं बचपन की ओर।


रोज स्कूल जाने की तैयारी,

रोज कुछ नया सीखना सिखाना,

बच्चों संग बच्चा बन जाना,

भविष्य के मधुर मीठे सपने सजाना।


बच्चों संग खेलना, गीत गुनगुनाना,

मिलकर विद्यालय का कोना-कोना सजाना।

चित्रकला से सपनों की दुनिया बनाना,

सब बनाता है मन में बचपन का कोना।


इसीलिए शिक्षक कभी बूढ़े नहीं होते,

वो जीते हैं हर पल बचपन।

महसूस करते हैं जीवन का मतलब,

कहीं न कहीं बच्चा बन जाता है उनका मन।


शिक्षक बचपन को फिर से जीते हैं,

नन्ही आँखों में अपने ही सपने बुनते हैं।


रचयिता

सुधा गोस्वामी,
सहायक शिक्षिका,
प्रथमिक विद्यालय गौरिया खुर्द,
विकास क्षेत्र-गोसाईंगंज,
जनपद-लखनऊ।



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