125/2024, बाल कहानी - 24 जुलाई
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बाल कहानी- दादा जी का बचपन
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सोनू और उसके दादा जी की दोस्ती बड़ी निराली थी। उसके दादा जी रोज शाम को उसे कहानियाँ सुनाया करते थे। एक दिन वे अपने जमाने को याद करते हुए अपने बचपन की कहानी सुनाने लगे। कहने लगे-, "वे भी क्या दिन थे! सुनकर ही मन अतीत के झरोखे में झाँकने लगता है। पिता जी बाहर देश - परदेश रहकर काम करते थे। अम्मा गाँव में रहती थीं। मुहल्ले के अन्य बच्चों के साथ मैं भी स्कूल जाने लगा। मुंशी जी ने कब नाम लिखा? पता ही नहीं चला। कक्षा एक व दो में लकड़ी वाली पाटी, माटी का बोरका, जिसमें छुहिया व कजरी रहती थी, सरपत की एक कलम जिसे अम्मा एक धागे से पाटी में बाँध देती थीं, लेकर स्कूल जाते थे । अब की तरह जूता- मोजा, ड्रेस-स्वेटर की न अनिवार्यता थी और न अँटता ही था। अधनंगे अथवा फटी बनियान-नेकर में ही सभी बच्चे मस्ती करते स्कूल जाते थे। ठण्डी में अम्मा गटइया बाँध देतीं। वहीं हम सबका ओवरकोट होता था। गर्मी में एक जुनिया होती तो भुलभुल से बचने को बरगद व महुआ के पत्ते ही सबके चप्पल होते थे। सिर को घाम अथवा बारिस से बचने के लिए वही पाटी छाता का काम करती थी। गाँव वाले मुंशी जी, जिनका पूरे गाँव-जँवार में बड़ा मान-सम्मान था। वे हम लोगों की पाटी में खटकिन्ना करते और हम लोग सरपत की कलम से उसके ऊपर लिखा करते थे। दिया की कजरी से पाटी पोतकर काँच की शीशी से घोंट-घोंट कर पाटी चमकायी जाती और उसमें अपना मुँह देखने का अपना अलग ही आनन्द था। किसी से किसी की छुहिया अड़ा जाने पर उँगलियों से नापकर डाँड़ लेना अब भी मन में गुदगुदी करने लगता है।" यह सुनकर सोनू बहुत प्रसन्न हुआ।
संस्कार सन्देश-
पुरानी बातों से हमें उस समय की परिस्थितियों का पता चलता है।
लेखक-
रामचन्द्र सिंह (स०अ०)
प्रा० वि० जगजीवनपुर-2
ऐरायाँ - फतेहपुर (उ०प्र०)
कहानी वाचक-
नीलम भदौरिया
जनपद- फतेहपुर (उ०प्र०)
✏️संकलन
📝टीम मिशन शिक्षण संवाद
नैतिक प्रभात
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