वसुंधरा

करो धरा हरा-भरा,
वसुंधरा-वसुंधरा,
सभी का बोझ सिर धरा,
वसुंधरा, वसुंधरा।।

हैं उर में जड़ी इसके अनेकों बूटियाँ,
न कर तू इतनी त्रुटियाँ,
आगे बढ़, सहेज ज़रा,
वसुंधरा, वसुंधरा।।

रे मनुष्य तू तो है शिष्ट,
फिर क्यों भरे अपशिष्ट,
कर प्रयास कुछ विशिष्ट,
पड़ी जो माँ की कुदृष्टि,
प्रलय है, संभल ज़रा,
वसुंधरा, वसुंधरा।।

दिखा रही एक-एक झलक,
फिर न जाने क्या ललक,
मिटा रहा धरा फलक,
बंद कर नादानियाँ,
रहने दे कुछ निशानियाँ,
भगीरथ प्रयास कर ज़रा,
वसुंधरा, वसुंधरा।।

आओ सहेज ले ज़रा ये जड़ी, ये बूटियाँ,
ये अमोल रत्न ये बादलों की अठखेलियाँ,
माँ के आशीष से, फलेंगी-फूलेंगी सन्ततियाँ,
चहुँओर होंगी ख्यातियाँ,
रत्नगर्भा माँ के तू, लौटा दे सारे रत्न ज़रा,
सीख फिर से ककहरा, सीख फिर से ककहरा,
वसुंधरा, वसुंधरा।।

रचयिता
सीमा पाण्डेय,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय बरहुआं,
विकास खण्ड-पिपरौली,
जनपद-गोरखपुर।

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