'सफलता का मतलब'
क्या सफल वही है जो बाकियों को पीछे छोड़ दे?
क्या नायक वही है जो limelight में चमक रहा हो क्योंकि बाकी लोग अंधेरे में खामोश बैठे हैं?
क्या उक्त कसौटियों पर कसा जाने वाला समाज 'चंद सफल' और 'अधिकांश असफल' लोगों से भरा एक कुंठित समाज नहीं होगा?
हम जिन बच्चों को शिक्षा देते हैं, उनमें से अधिकांश आगे चलकर गाँव में ही रहेंगे, खेती-मजदूरी और अन्य 'तथाकथित पिछड़े' काम ही करेंगे।
तो क्या कामयाबी की वर्तमान परिभाषा के अनुसार वे अधिकांश लोग असफल कहलाने को अभिशप्त हैं?
क्या हमें उनके अंदर ऐसी सोच नहीं भरनी चाहिए जब वे एक 'आम' आदमी बने रहने के बावजूद मानवता की दृष्टि से स्वयं को खास महसूस करें?
क्या सफलता की ऐसी परिभाषा नहीं हो सकती जिसमें समाज का हर व्यक्ति सफल हो सके? सभी लोगों की अपनी स्वतंत्र victory line हो जो दूसरों की स्थिति से निर्धारित न हो।
यह संभव है, यदि हम सफलता के मानकों पर पुनर्विचार करें।
क्यों न हम उसे सफल मानें,
भले ही ऐसा व्यक्ति एक सार्थक जीवन जीने के बाद गुमनाम मौत मर जाये लेकिन मेरी नज़र में ऐसी गुमनामी अनेक 'नामचीनों' की शोहरत से कहीं अधिक 'सफल' है ठीक उसी प्रकार जैसे एक बीज का अस्तित्व मिटने के बावजूद उसकी सार्थकता अनंत बन जाने में निहित है।
स्वामी विवेकानंद के शब्दों में, "बढ़ती आयु के साथ मैं पाता हूँ कि मेरी दृष्टि छोटी घटनाओं में महानता की खोज करती है। किसी बड़े पद पर तो कोई भी व्यक्ति बड़ा हो जाएगा। प्रशंसा के आलोक में एक कायर भी वीर हो उठेगा क्योंकि उस समय सब लोगों की दृष्टि उस पर होती है। मेरी दृष्टि में सच्ची महानता वहाँ है जहाँ एक सामान्य कीट चुपचाप, सतत, क्षण-क्षण, घड़ी-घड़ी अपना कर्तव्य करे जा रहा है।"
और उक्त के परिप्रेक्ष्य में लगता है कि वास्तव में सफलता और सार्थकता की दुनियावी परिभाषा कितनी सतही है।
लेखक
प्रशान्त अग्रवाल,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय डहिया,
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी,
ज़िला-बरेली (उ.प्र.)
क्या नायक वही है जो limelight में चमक रहा हो क्योंकि बाकी लोग अंधेरे में खामोश बैठे हैं?
क्या उक्त कसौटियों पर कसा जाने वाला समाज 'चंद सफल' और 'अधिकांश असफल' लोगों से भरा एक कुंठित समाज नहीं होगा?
हम जिन बच्चों को शिक्षा देते हैं, उनमें से अधिकांश आगे चलकर गाँव में ही रहेंगे, खेती-मजदूरी और अन्य 'तथाकथित पिछड़े' काम ही करेंगे।
तो क्या कामयाबी की वर्तमान परिभाषा के अनुसार वे अधिकांश लोग असफल कहलाने को अभिशप्त हैं?
क्या हमें उनके अंदर ऐसी सोच नहीं भरनी चाहिए जब वे एक 'आम' आदमी बने रहने के बावजूद मानवता की दृष्टि से स्वयं को खास महसूस करें?
क्या सफलता की ऐसी परिभाषा नहीं हो सकती जिसमें समाज का हर व्यक्ति सफल हो सके? सभी लोगों की अपनी स्वतंत्र victory line हो जो दूसरों की स्थिति से निर्धारित न हो।
यह संभव है, यदि हम सफलता के मानकों पर पुनर्विचार करें।
क्यों न हम उसे सफल मानें,
- जिसने जीवन में अधिकतम कर्तव्य-निर्वहन और न्यूनतम इच्छाओं के द्वारा 'संतोष' नामक महाधन को पा लिया हो।
- जिसके पास बैठने से, जिसकी वाणी से किसी दुखी व्यक्ति को सुकून भरी ठंडक महसूस होती हो।
- शांति, प्रेम, सत्य, करुणा जिसके व्यक्तित्व के अंग हों।
- जो प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम दोहन करके उनके संरक्षण का प्रयास करता हो।
- जो देश की उन्नति में अपने हिस्से लायक हाथ बँटाता हो।
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भले ही ऐसा व्यक्ति एक सार्थक जीवन जीने के बाद गुमनाम मौत मर जाये लेकिन मेरी नज़र में ऐसी गुमनामी अनेक 'नामचीनों' की शोहरत से कहीं अधिक 'सफल' है ठीक उसी प्रकार जैसे एक बीज का अस्तित्व मिटने के बावजूद उसकी सार्थकता अनंत बन जाने में निहित है।
स्वामी विवेकानंद के शब्दों में, "बढ़ती आयु के साथ मैं पाता हूँ कि मेरी दृष्टि छोटी घटनाओं में महानता की खोज करती है। किसी बड़े पद पर तो कोई भी व्यक्ति बड़ा हो जाएगा। प्रशंसा के आलोक में एक कायर भी वीर हो उठेगा क्योंकि उस समय सब लोगों की दृष्टि उस पर होती है। मेरी दृष्टि में सच्ची महानता वहाँ है जहाँ एक सामान्य कीट चुपचाप, सतत, क्षण-क्षण, घड़ी-घड़ी अपना कर्तव्य करे जा रहा है।"
और उक्त के परिप्रेक्ष्य में लगता है कि वास्तव में सफलता और सार्थकता की दुनियावी परिभाषा कितनी सतही है।
लेखक
प्रशान्त अग्रवाल,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय डहिया,
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी,
ज़िला-बरेली (उ.प्र.)
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