बिखरते मोती, चमकते सितारे
आजादी से लेकर अब तक शिक्षा के पाठ्यक्रम में बहुत बदलाव हुए हैं। बहुत-सी सामग्री को हटाया गया है तो बहुत कुछ जोड़ा भी गया है। ऐसा करते-करते बच्चों पर बस्तों का बोझ बहुत बढ़ गया। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जिस बच्चे के मुँह से शहद की निप्पल अभी निकली भी नहीं होती तब तक उसको साढ़े तीन वर्ष की आयु में ही स्कूल में ढकेल दिया जाता है। LKG कक्षाओं के प्रथम दिन बच्चों के रोने से पूरी कक्षा का वातावरण संगीतमय हो जाता है और उनका इस संगीत में सुर-ताल मिलाती हैं, उनकी माताएँ। इस तरह आरंभ होता है "राग ललित" का। जो सुबह के समय ही गाया जाता है। 15 वर्ष पहले इस कॉन्क्लेव का मैं भी गवाह रहा। हमारे समय में बच्चा जब 6 या 7 वर्ष का हो जाता था तब वह पढ़ने जाता था। इसलिए बच्चे शारीरिक रूप से स्वस्थ रहते थे। बच्चों पर माँ-बाप का ज्यादा दखल नहीं था। ऐसा नहीं है कि उस समय पढ़ाई न होती हो। पढ़ाई भी अच्छी और व्यवहारिक होती थी। गाँव का जीवन होने के कारण हमें खेतों में भी काम करना पड़ता था। सभी कुछ प्रायोगिक था। सारे खेत-खलिहान हमारे लिए खेल के मैदान थे। अब ऐसा नहीं है।
अब बच्चे घर तक ही सीमित रह गये हैं। अब बच्चों के खेल का मैदान घर की छत के नीचे तक ही सीमित रह गया है। अगर कोई बच्चा किसी अन्य बच्चे के साथ खेलने के लिए घर से निकल भी जाता है तो थोड़ी देर बाद ही उसको कान पकड़कर पढ़ने के नाम पर घर में घुसेड़ दिया जाता है। मुझे नहीं लगता कि यह बच्चे के साथ सही व्यवहार है। आपको शायद यह पता नहीं है कि बच्चा वहाँ पर भी सीख रहा है। सामाजिक ज्ञान प्राप्त कर रहा है। खेल भावना से भी जुड़ रहा है। उसका इस माध्यम से शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक विकास हो रहा है। लेकिन यह सब कुछ हमने ही उससे छीन लिया। कारण, आजकल की शिक्षा की तुलनात्मक दृष्टि। सभी बच्चे हर क्षेत्र में एक जैसे नहीं होते।
अगर पीछे का इतिहास उठाकर देखें तो महात्मा गांधी, धीरूभाई अम्बानी, जगजीत सिंह, 2004 के ओलम्पिक में रजक पदक विजेता (शूटिंग) लेफ़्टिनेंट कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौर ने कभी पढ़ाई में टॉप नहीं किया। थामस अल्वा एडीसन जिन्होंने पूरी दुनिया को प्रकाशित किया, को कई बार विद्यालय से निकाला गया और अन्त में अपनी छुपी हुई प्रतिभा से बिजली के बल्ब का आविष्कार किया। अगर मैं अपने पास ही देखूँ तो पाऊँगा कि राजा बलवन्त सिंह ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत योगदान दिया। वह मेरे गाँव बरई कल्यानपुर में ही रहते थे। बाद में अवागढ़ के किले में पहुँचे। राजा बख्त सिंह के समय हुए इस किले के निर्माण कार्य को बख्त सिंह के पुत्र हीरा सिंह के समय में पूर्णता प्राप्त हुई। राजा बलवन्त सिंह पढ़े-लिखे नहीं थे। फिर भी उन्होंने शिक्षा के महत्व को समझते हुए आगरा में खोले जाने वाले विद्यालय में सबसे बड़ा दान (उस समय एक लाख रुपए) दिया और उनके नाम से विद्यालय विख्यात हुआ। आज इस विद्यालय से लाखों विद्यार्थी विद्याध्ययन करके देश का नाम रोशन कर चुके हैं। वर्तमान में कई हस्तियाँ ऐसी हैं जिन्होंने या तो पढ़ाई कम की या फिर बीच में ही छोड़ दी।
1- मुकेश अम्बानी ने MBA की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। वह रिलायंस इंडस्ट्रीज के प्रबन्ध निदेशक बने और फोर्ब्स पत्रिका के अनुसार दुनिया के नौवें धनी व्यक्ति बने।
2-कपिल देव ने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी और क्रिकेट की दुनिया में आलराउंडर प्रर्दशन किया तथा 1983 में भारत को विश्वकप का खिताब दिलाया।
3-सचिन तेंदुलकर ने केवल हाईस्कूल तक ही पढ़ाई की और GOD of Cricket के नाम से विख्यात हुए। सचिन तेंदुलकर को "भारत रत्न" से सम्मानित करने के लिए भारत सरकार को संविधान में संशोधन भी करना पड़ा।
4-विप्रो के चेयरमैन अजीम प्रेमजी ने बीच में ही कॉलेज छोड़ दिया। उन्होंने 21 वर्ष की आयु में एक कम्पनी का आरंभ किया और आज 11 बिलियन डॉलर की संपत्ति के मालिक हैं।
5-फिल्म इंडस्ट्री में आमिर खान ने केवल कक्षा 12 तक ही पढ़ाई की है और आज जाने-माने अभिनेता हैं।
6-मणिपुर के गरीब परिवार से मैरीकॉम ने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी। बाक्सिंग को अपना कैरियर चुना और पाँच बार विश्व बाक्सिंग चैम्पियन बनीं। वह दुनिया की पहली महिला बाक्सर बनीं। जिन्होंने प्रत्येक छः विश्व चैम्पियनशिप में मैडल जीता। इनके ऊपर फिल्म भी बनाई गई। 26 अप्रैल 2016 को राष्ट्रपति ने राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी 16 मार्च को इम्फाल में मैरीकॉम रीजनल बाक्सिंग फाउंडेशन का उद्घाटन करेंगे। मणिपुर के पश्चिम इंफाल जिले में स्थित मैरीकॉम मुक्केबाजी अकादमी 3.3 एकड़ में फैली है।
7- गौतम अडानी ने बीच में ही कॉमर्स डिग्री की पढ़ाई छोड़ दी। उसके बाद हीरा का व्यापार आरंभ किया। अडानी ग्रुप बनाया और आज 6 बिलियन डॉलर के मालिक हैं।
8- ऐश्वर्या राय ने मुम्बई में शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद बीच में ही आर्कीटेक्चर कोर्स छोड़ दिया और मिस वर्ल्ड का खिताब जीता।
9- बॉलीवुड के प्रभावशाली अभिनेता सलमान खान कभी स्कूल नहीं गये। उन्होंने अभिनय के क्षेत्र में झण्डे गाड़ दिए।
10- मार्शल आर्ट में ब्लैक बैल्ट प्राप्त अभिनेता अक्षय कुमार ने बीच में ही स्नातक की पढ़ाई छोड़ दी और अभिनय के क्षेत्र में बुलन्दी हासिल की।
इस तरह के अनगिनत उदाहरण हैं। जिन्होंने बिना तनाव के अपनी मेहनत के बल पर दुनिया में नाम रोशन किया। बच्चे को बड़ा होकर उसकी पसंद का कैरियर चुनने दें। उस पर दबाव न बनाएँ। उसमें आप सही-गलत की अपनी राय अवश्य दें। आजकल मैडीकल और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में काफी भीड़ हो रही है। बच्चे काफी मेहनत भी कर रहे हैं। लगभग बारह-चौदह घंटे पढ़ाई में लगा रहे हैं। कुछ बच्चे सफल भी हो रहे हैं। इन सब के बीच बच्चे असफल भी होते हैं। ऐसे बच्चों के माता-पिता को चाहिए कि उनको समझाएँ कि सफलता दूसरे क्षेत्र में भी प्राप्त की जा सकती है, निराश न हों। जिन्दगी बहुत लम्बी है और बहुत कीमती भी। देश और परिवार को उनकी आवश्यकता है। दु:खद पहलू तब नजर आता है जब बच्चे हताश होकर और दूसरे बच्चों से तुलना करके आत्महत्या कर लेते हैं। ऐसी कई घटनाएँ कोटा में देखने को मिलीं हैं। आजकल CBSE बोर्ड में तो अगर बच्चे के 60% अंक आते हैं तो बच्चे और घर वालों का भी मिजाज बदल जाता है और कई बार तो बच्चों ने आत्मघाती कदम भी उठाए। हमारे समय में तो 33% पर ही पूरे गाँव में लड्डू बंट जाते थे।
अगर मैं ऐसा होता तो शायद दो बार आत्महत्या कर चुका होता। क्योंकि मैं हाईस्कूल में दो बार गणित में असफल हुआ। तीसरी बार में 62% अंकों के साथ 1986 ई. में सफलता प्राप्त हुई। लेकिन गणित से हार नहीं मानी और कक्षा 11 में भी बायोलॉजी के स्थान पर गणित विषय ही चुना। फिर कभी भी असफल नहीं हुआ। मैंने केवल हाईस्कूल में ही ट्यूशन पढ़ी। फिर कभी नहीं पढ़ी। आगरा कॉलेज, आगरा से B.Sc(1991) किया। RBS कॉलेज, आगरा से B.Ed.(1993) किया। इण्टर उर्दू (1995) से किया। उसके बाद 1998 में BTC । मेरी माँ ने हाईस्कूल में दो बार अनुत्तीर्ण होने के बाद भी कभी नहीं डाँटा। मेरे बचपन से साथ पढ़े दोस्त उपेन्द्र प्रताप सिंह (U P Singh) जो कि मूलरूप से गांव खुटीपुरा, अवागढ़ (एटा) के रहने वाले हैं, भी इण्टरमीडिएट में एक बार रसायन विज्ञान में अनुत्तीर्ण हुए और आज पूरा एटा उनको शिक्षा के क्षेत्र में जानता है। वह शान्ति नगर, एटा में बच्चों को इण्टरमीडिएट की भौतिक विज्ञान की ट्यूशन पढ़ाते हैं। उनके पढ़ाए हुए हजारों बच्चे अच्छे मुकाम हासिल कर चुके हैं। मुझसे एक वर्ष सीनियर रहे मूलरूप से गाँव थाथी गदनपुर (फिरोजाबाद) के रहने वाले (अब आगरा में) श्री सत्यप्रकाश शर्मा इण्टरमीडिएट में अवागढ़ में पढ़ते हुए एक बार अनुत्तीर्ण हुए और आज आगरा में जूतों की कई फैक्ट्रियों के मालिक हैं। मुझसे एक वर्ष सीनियर रहे श्री मुकेश शर्मा जो कि मूलरूप से गांव पौंडरी, अवागढ़, एटा के रहने वाले हैं, भी B.Sc.प्रथम वर्ष में दो विषय में असफल रहे। एक आर्गेनिक कैमिस्ट्री (कार्बनिक रसायन) एवं दूसरा गणित। आर्गेनिक कैमिस्ट्री में तो 05 अंक ही आए और बाद में M.Sc. (Maths) से किया। इस समय जनता इण्टर कॉलेज, पिलुआ (एटा) में एल.टी. ग्रेड में अध्यापक हैं। वह माध्यमिक शिक्षक संघ, एटा के सात बार जिला मंत्री और चार बार जिलाध्यक्ष भी रहे हैं। मेरे ही मित्र श्री देवेन्द्र सोलंकी एडवोकेट ने भी असफलता का स्वाद चखा। वह भी हाईस्कूल की परीक्षा (1988) में गणित (31 अंक) और सामाजिक विषय (32अंक) में अनुत्तीर्ण हुए। उसके बाद असफलता से सीख मिली। हमेशा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए और आगरा कालेज, आगरा से एल एल एम तक की योग्यता हासिल की। आज एटा के क्राइम के टॉप फाइव वकीलों की सूची में नाम है।
मैंने 2016 में एक समाचार पत्र में खबर पढ़ी थी। झारखंड से नीलोत्पल मृणाल नाम का एक लड़का मुखर्जी नगर, दिल्ली में आई ए एस की तैयारी करने जाता है और खूब मेहनत करता है। लेकिन वहाँ पर आई ए एस की तैयारी करने वाले लड़कों की भीड़, उनकी मेहनत, सफलता और असफलताओं के दौर से उनके गुजरने की हक़ीक़त को अपने पन्नों पर उकेरा और आई ए एस का ख्वाब देखते-देखते एक लेखक बन गया। 'डार्क हॉर्स' नामक किताब लिख डाली। लेकिन प्रकाशक नहीं मिले। दर-दर की ठोकरें खाने के बाद 'शब्दार्थ' नामक एक प्रकाशन मिला। 'शब्दार्थ' प्रकाशन के लिए भी पहली पुस्तक थी। इस पुस्तक के लिए नीलोत्पल को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
'जेतना दिन में लोग एमए - पीएचडी करेगा, हौंक के पढ़ दिया तो ओतना दिन में तो आईएसे बन जाएगा।’ नीलोत्पल मृणाल के पहले उपन्यास ‘डार्क हॉर्स’ के मुख्य किरदार का यह कथन उन सभी छात्रों की संवेदना को व्यक्त करता है, जो स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद गाँवों से निकलकर सिविल सर्विस की तैयारी करने के लिए सुदूर शहरों की ओर जाते हैं और इस ठसक के साथ वे एक जद्दोजहद भरी जिंदगी में कदम रखते हैं कि अब अगर बोरिया-बिस्तर उठा तो उनके नन्हें हाथों में एक कुशल प्रशासक बनने का प्रमाणपत्र होगा तथा उनके छोटे कंधों पर शिद्दत से आस लगाए माँ-बाप की आँखों में पल रहे कुछ खूबसूरत ख्वाबों को पूरा करने की जिम्मेदारी भी होगी। यह ठसक यहीं नहीं रुकती, बल्कि और भी आगे बढ़ती है और घर-परिवार, रिश्ते-नाते, गांव-जवार, जनपद-क्षेत्र आदि को शानो-शौकत से नवाजती हुई अगली कई पीढ़ियों को तारने तक पहुंचती है। इस ऐतबार से ‘डार्क हॉर्स’ महज एक उपन्यास भर नहीं है, बल्कि छात्र जीवन की अनगिनत अनकही कहानियों का ऐसा दस्तावेज है, जो यथार्थ के धरातल पर एक तरफ सफलता के आस्वाद को चिन्हित करता हुआ एक अदद नौकरी के लिए सिविल सर्विस को ही पैमाना मानता है, तो वहीं दूसरी तरफ बीए-एमए-पीएचडी की डिग्रियां हासिल करने के बाद भी उसी एक अदद नौकरी के न मिलने पर हमारी शिक्षा व्यवस्था पर कई सवाल भी खड़े करता है।‘डार्क हॉर्स’ का मुख्य किरदार संतोष बिहार के भागलपुर से सिविल सर्विस की तैयारी के लिए दिल्ली आता है। उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों से सिविल सर्विस की तैयारी करने के लिए लड़के या तो इलाहाबाद का रुख करते हैं या तो दिल्ली का। खास तौर से हिंदी माध्यम से तैयारी करने वाले लड़कों के लिए ये दो जगहें ही मख्सूस मानी जाती हैं। जो थोड़े कमजोर घर से होते हैं, वे इलाहाबाद रह कर तैयारी करते हैं, और जो थोड़े साधन-संपन्न होते हैं, वे दिल्ली के मुखर्जी नगर में अपना आशियाना बनाते हैं। साथ ही यह भी कि मुखर्जी नगर में एक इलाहाबाद हमेशा मौजूद रहता है।
इस उपन्यास को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि नीलोत्पल ने हमें मुखर्जी नगर की एक इमारत की सबसे ऊपरी मंजिल की खिड़की पर बिठा दिया है, जहां से हम इसके सारे किरदारों को आते-जाते, उठते-बैठते, पढ़ते-लिखते, खाते-पीते देख रहे होते हैं। सबकी जुबान पर पुरबिया बोली ऐसा माहौल पैदा करती है कि मानो बत्रा के पास पूरा का पूरा पुरबिस्तान इकट्ठा हो गया हो। यह भी नजर आता है कि बरसों से वैष्णव परंपरा का निर्वाह करते चले आ रहे छात्र दिल्ली में कदम रखते ही कैसे समझौतावादी हो जाते हैं और ‘गुरूत्व’ और ‘चेलत्व’ के भावों में उतरकर फौरन ही सोचने लगते हैं कि अब तो आईएएस की पोस्ट जरा दूर नहीं। चाय पर चकल्लस के दौरान हुई किसी से एक छोटी सी गलती भी कैसे इतिहास की बड़ी से बड़ी गलती साबित हो जाती है। इसी गलती को जो पकड़ के अच्छी तरह से समझ लेता है, उसके लिए परिणाम के दिन जश्न और जो नहीं समझ पाता हैउसके लिए मातम। इसी जश्न और मातम के पहले की संघर्षपूर्ण मगर सच्ची तस्वीर को ‘डार्क हॉर्स’ में पेश किया है नीलोत्पल ने। जिसमें संघर्ष सिर्फ एक परीक्षा की तैयारी को लेकर नहीं है, बल्कि गाँव-शहर की संस्कृतियों का भी संघर्ष है, खान-पान और रहन-सहन से लेकर भाषाई सुचिता और भदेसपन का भी संघर्ष है, बौद्धिकता और सहजता का संघर्ष है, गंवई बाप और शहर से समझौतावादी हो चला उसके पुत्र के बीच का संवाद संघर्ष है, सफलता और असफलता का संघर्ष है, कोचिंग क्लास में अपनी पहली प्रेमिका या प्रेमी खोजने का संघर्ष है, भारी-भरकम सिलेबस के बीच कहीं कोई मस्ती का कोना ढूंढने का संघर्ष है, मर्यादाएँ-परम्पराएँ बनाए रखने या झट से तोड़ देने का संघर्ष है। खुद के मिजाज और व्यवस्था के लिजलिजेपन का संघर्ष है। ये सारे संघर्ष मिलकर एक आत्मकथा तैयार करते हैं। मुखर्जी नगर या हिंदुस्तान के किसी भी कोने में सिविल या दूसरी किसी भी परीक्षा की तैयारी करने वाले लड़के-लड़कियों की आत्मकथा। मगर एक विशेष देश-काल के दौरान ही घटित हुई आत्मकथा, जिसमें जीवन का एक खास हिस्सा हमारे सामने हो। नीलोत्पल खुद भी सिविल की तैयारी करते हैं, इस ऐतबार से यह उनकी भी आत्मकथा है। इस उपन्यास की सबसे खास बात यह है कि लेखक ने अपने किरदारों की जुबान नहीं काटी है। किरदारों ने जब चाहा, जो चाहा बोल दिया, जैसी गाली देनी चाही, दी। लेखक ने ठीक वैसे ही उसे लिख दिया। इसलिए वे शब्द, शिल्प, बिंब आदि के साहित्यक पैमानों से बरी हो जाते हैं। किरदारों के साथ ऐसा इंसाफ यथार्थ लेखन में ही संभव है। वैसे भी नीलोत्पल खुद भी यह दावा करते हैं कि उन्होंने इस उपन्यास के रूप में कोई साहित्य नहीं रचा है, बल्कि उन्होंने जो देखा है, उसे ही अक्षरों, शब्दों और वाक्यों में पिरोकर एक कहानी कह डाली है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए, किरदारों के मुँह से ‘गंवई गालियों’ को सुनते हुए ऐसा नजर भी आया है। जिससे यह कहा जा सकता है कि वह अपने दावे पर खरे उतरे हैं। लेकिन, यहीं से उम्मीदें भी पनपती हैं, जो नीलोत्पल से मांग करती हैं कि आने वाले दिनों में वह भाषाई शुचिता के पहरेदारों को नाक-भौंह सिकोड़ने नहीं देंगे। अब वह एक लेखक हैं और एक लेखक के रूप में उनकी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। हो सकता है कि उन्हें कोई अच्छा किरदार खोज रहा हो, जो गाली न देता हो, मगर उतना ही सशक्त हो, जितना कि इस ‘डार्क हॉर्स’ के किरदार हैं। खैर, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन नीलोत्पल ने इस उपन्यास से यह साबित कर दिया है कि उनमें लेखन की यह एक नई हुमक है। इस हुमक को बरकरार रख पाने की नीलोत्पल ने थोड़ी सी भी गुंजाइश दिखाई तो समझ लें कि कल उनके लिए यह दावा जरूर होने लगेगा कि वह सिर्फ देखी-सुनी बातों को ज्यों का त्यों नहीं लिखते, बल्कि उनमें अच्छे साहित्य सृजन के लिए गहरी संवेदनाएं भी हैं, जो उनकी कल्पनाशीलता को एक नया आयाम दे सकती हैं।
यहाँ इन सभी उदाहरणों को प्रस्तुत करने का तात्पर्य यही है कि किसी एक हार से जीवन का अन्त नहीं होता, वहाँ से एक सीख मिलती है और नया जीवन आरम्भ होता है। जीवन से लेकर मृत्यु तक का यह एक ईश्वर का दिया हुआ सफर है। एक मधुर संगीत है। आओ हम-सब मिलकर इस यात्रा को गुनगुनाते हुए पूर्ण करें।
लेखक
योगेश शर्मा,
मेरा गांव:
बरई कल्यानपुर, अवागढ़, एटा
वर्तमान पता:
22, श्री राम वाटिका,
जजेज कालोनी के सामने,
आगरा रोड, एटा (उ.प्र.)
वे कहानियाँ हौंसला अधिक बढ़ाती हैं जिनमें परिणामी सफलता से पहले असफलताओं के थपेड़ों का बेबाक चित्रण होता है क्योंकि तभी आम संघर्षी जन उसमें अपनी छवि पाता है और कुछ करने को प्रेरित हो जाता है।
ReplyDeleteऐसे ही उदाहरणों से भरपूर गंभीर विषय पर आलेख हेतु लेखक को साधुवाद ��