मेरी जननी कहाँ चली तुम?
मेरी जननी कहाँ चली तुम?
छोड़कर मुझे यहाँ अकेला।
तेरे बिना तो सूना जग सारा,
लगता है अब स्वार्थ का मेला।।
याद आता जब कभी मुझको,
वह मेरा खूबसूरत सा बचपन।
खिलाती थी मुझे अपनी हाथों से,
ऐसा था बस मेरा वो लड़कपन।।
रुठ जाता था यदि कभी तुमसे,
खिलौने देकर मुझको उठाती थी।
अंगुलियाँ पकड़कर मेरी माँ तुम,
इधर-उधर लेकर भी घूमाती थी।।
अब तो दिखता चारों तरफ माँ,
यह पूरी दुनिया ही एक झमेला।
मेरी जननी कहाँ चली तुम?
छोड़कर मुझे यहाँ अकेला।
रचयिता
रवीन्द्र शर्मा,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय बसवार,
विकास क्षेत्र-परतावल,
जनपद-महराजगंज,उ०प्र०।
छोड़कर मुझे यहाँ अकेला।
तेरे बिना तो सूना जग सारा,
लगता है अब स्वार्थ का मेला।।
याद आता जब कभी मुझको,
वह मेरा खूबसूरत सा बचपन।
खिलाती थी मुझे अपनी हाथों से,
ऐसा था बस मेरा वो लड़कपन।।
रुठ जाता था यदि कभी तुमसे,
खिलौने देकर मुझको उठाती थी।
अंगुलियाँ पकड़कर मेरी माँ तुम,
इधर-उधर लेकर भी घूमाती थी।।
अब तो दिखता चारों तरफ माँ,
यह पूरी दुनिया ही एक झमेला।
मेरी जननी कहाँ चली तुम?
छोड़कर मुझे यहाँ अकेला।
रचयिता
रवीन्द्र शर्मा,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय बसवार,
विकास क्षेत्र-परतावल,
जनपद-महराजगंज,उ०प्र०।
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