मैं नारी हूँ

मैं नारी हूँ बेचारी हूँ ?
क्या बुझी हुई चिंगारी हूँ ?

मेरा भी बचपन आया था
चहुँओर उजाला छाया था
 वो उड़ती चंचल सी तितली
दौड़ा करती पकड़ा करती 
गाती रहती चिड़िया के संग
 फ़ाहे रुई के फूंका करती
आगे बढ़कर स्कूल चली
सपने बुनती जी भर जीती
 जब भोर हुई तैयार हुई
मां कहती चूल्हे पर दाल चढ़ी
मैं राह देखती खड़ी खड़ी
घंटी टन टन बजने लगती
भैया का हाथ पकड़ करके
उसको भी लेकर साथ चली
टीचर की डांट पड़ा करती
मुड़ती वापस मैं अपनी गली
चढ़ती गिरती मैं आगे बढ़ी
जीवन की राह थी कठिन बड़ी

 भाई बहन को पाला था
 पढ़ती मैं किसको क्या थी पड़ी
 भैया को कहते खूब पढ़ो
हम पर तो सब की नाक चढ़ी
इस लिंग भेद के संदर्भों में
मैं बिल्कुल अलग थलग सी पड़ी
 पर मैंने भी यह ठाना था
मुझको भी कॉलेज जाना था
मैं कहाँ किसी पर बोझ बनी
मैंने भी स्वयं को जाना था
प्रबल विरोधों के सागर में
मांझी तो स्वयं बन जाना था
जो आज नहीं तो कभी नहीं
उठकर आगे बढ़ जाना था
अब कठिन परीक्षा की थी घड़ी
निर्भय होकर मैं आगे बढ़ी
 जब आशाओं के दीप जले
चेहरे थे सबके खिले खिले
अब अंधकार की न थी गली
मुझको मेरी मंजिल थी मिली
बेटा बेटी में भेद नहीं
दोनों को साथ पढ़ाना है
घर घर मे उजियारा बनकर
शिक्षा का दीप जलाना है
हैं मेरी राहें स्वयं बनी
मैं नारी हूँ बेचारी नहीं

रचयिता
आरती श्रीवास्तव,
प्रधान शिक्षिका,
प्राथमिक विद्यालय सेमरा चौराहा,
विकास क्षेत्र-सुरसा,
जनपद-हरदोई।

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