एक सरकारी स्कूल का अध्यापक

मैं एक सरकारी स्कूल का अध्यापक हूँ इसलिए समाज में निंदा का विषय हूँ। कामचोर, लापरवाह, निकम्मा, फ्री का वेतन लेने वाला और न जाने क्या-क्या लोग कहते हैं पीठ पीछे मुझे। सच ही तो है, जब कलुआ कभी किताब न पढ़ पाया तो कलुआ के मास्टर की इज्जत भी क्यों की जाए? सरकारी अध्यापक की आलोचना और निंदा मैं हृदय से स्वीकार करता हूँ।
  वास्तव में मैं कभी भी अपने छात्रों को समाज के शैक्षिक मानक के लायक बना ही नहीं पाया पर अब मैं उन्हें मानक लायक बनाना भी नहीं चाहता हूँ। मैं तो केवल उनके खिलखिलाते चेहरे देखकर ही खुश हूँ। मैं अब स्कूल पढ़ाने जाता ही नहीं हूँ, मैं तो उनके साथ जीवन के सबसे खूबसूरत पल जीने जाता हूँ।
  एक रोज कर्तव्य पूरा करने के उद्देश्य से मैंने कक्षा 6 के नितेश को डाँट दिया। उसके बाद अगले तीन दिन वह विद्यालय नहीं आया। बच्चों से कहा कि उसके पापा से मेरी खबर कर दो कि मैंने स्कूल बुलाया है तो बच्चे खूब जोर से हँसे
 "उसके पापा तो बिल्कुल कबाड़ी हैं, क्वार्टर पी कर पड़े रहते हैं और सबको गाली देते हैं।" 
तो मम्मी से कहना ,
 बच्चे फिर मुस्कराये "मम्मी चली गयी 3 साल पहले घर छोड़कर।" 
तो खाना कौन बनाता है? मैंने प्रश्न किया 
"बूढ़ी अइया हैं पर वह बीमार रहती हैं, सुबह का खाना नितेश खुद बनाता है शाम को उसके पापा।" बच्चों की बात सुनकर मन अपराध बोध से भर गया। अगले दिन उसके घर जा धमका एक कोने में 20-25 किलो की दुबली पतली बीमार अइया चारपाई पर पड़ी थी, बाहर के कमरे से शराब की बदबू आ रही थी। पिता खुद को संयमित कर बच्चे को भेजने का वादा कर रहे थे नितेश एक कोने में डरा सहमा खड़ा था और मैं निःशब्द था।
      उस रोज से मैंने नितेश को डाँटना छोड़ दिया। उसका दिमाग पढ़ने में अच्छा है पर मन बहुत चंचल हैं मैं जब ब्लैक बोर्ड की तरफ मुड़ता वो बगल के लड़के के साथ खेलने लगता। अक्सर छुट्टी में बस्ता अंदर के कमरे में छुपा जाता जब होमवर्क की पूछता तो उसकी आँख में आँसू आ जाते। मैं पारिवारिक परिस्थितियों के कारण सख्ती नहीं कर पाता। कई बार बिना नहाये स्कूल आ जाता। उसके बालों का घोंसला मुझे चिढ़ाता और मेरी आवाज ऊँची हो जाती, फिर याद आता कि इसने सुबह खाना आदि का अपना काम खुद ही निपटाया होगा इसलिए भूल गया होगा। दो चार बार अपने कंघे से बाल संवार दिए तो शर्मा गया अब सजकर आता है।
  नितेश एकलौता नहीं है जिसके साथ गंभीर परिस्थितियाँ हों। मेरे स्कूल में हर बच्चे की एक कहानी है और मेरे स्कूल में ही क्यों सब सरकारी स्कूल में है बस आप उनसे जुड़कर जानना तो चाहें। सरस्वती की माँ एक वर्ष से बिस्तर पर ही है। मैं जब भी उसे लेने गया तो उसकी माँ चारपाई पर ही मिली। सरस्वती रात में अक्सर शादियों में पूड़ी बेलने जाती है इसलिए स्कूल में कम ही आती है। माँ कतई शिष्ट नहीं है, कई बार समझाने की कोशिश की, पर कहती है कि स्कूल जाएगी तो घर का काम कौन करेगा। सच ही तो है चार भाई बहिन और माता पिता के साथ खाना बनाना और झाड़ू पोंछा तो उसे ही करना पड़ता है। लक्ष्मी मलिन बस्ती में रहती है स्कूल नहीं आती है अक्सर सुअर लेकर 9 बजे स्कूल के सामने से निकलती है बच्चे जोर से चिल्लाकर बताते हैं मास्साब लक्ष्मी जा रही है। मैं दौड़कर उसे रोक लेता हूँ, वो निगाह झुकाकर सड़क को नाखून से कुरेदने लगती हैं, बात करने पर पता चला कि पिता दिल्ली चला गया है घर सुअर पालन से ही चलता है। बमुश्किल दो बहनों में एक को राजी कर पाया स्कूल आने को पर वह कुछ दिन बाद अपनी जीजी के घर चली गयी। जुलाई में भी बच्चों के बस्ते में लिखने को कॉपियाँ नहीं हैं बच्चे कहते हैं पापा को पैसे मिलेंगे तब लाएँगे। मुझे पता है बच्चे सच कह रहे हैं। बस्ते में रंग नहीं हैं इसलिए कला की कॉपी अक्सर बेरंग ही रहती है। 
  
   मैं अक्सर अनुपस्थित बच्चों की खोज में गाँव चला जाता हूँ। गाँव में जगह जगह जुएं के फड़ लगे मिलते हैं जहाँ वार्तालाप में शब्द कम गालियाँ ज्यादा निकलती हैं। किशोर बच्चे अक्सर अम्बेडकर बगिया में मोबाइल चलाते मिलते हैं। ज़्यादातर पढ़ाई छोड़ चुके हैं मेरे पढ़ाये पूर्व छात्र मुझे आता देख दाएँ-बाएँ निकल लेते हैं उन्हें डर रहता है कि कहीं मैं उनकी पढ़ाई पर कुछ पूछ न लूँ। मुझे देखकर गाँव के लोगों के चेहरे पर उपहास नजर आता है

 "काहे पीछे पड़े हो मास्टर, ये नाही पढिहें इनके बप्पा को दारू से फुरसत मिले तब तो स्कूल भेजें" 
मैं मुस्कराता हुआ वहाँ से गुजर जाता हूँ। हाउसहोल्ड सर्वे में पता चलता कि सभी जिम्मेदार नागरिकों के बच्चे तो मांटेसरी में हैं और जो अत्यधिक गरीब हैं जिनके पिता को शराब जुएं आदि की लत है उनके बच्चे हमारी जिम्मेदारी हैं। मैं जानता हूँ कि अगर वह सरकारी स्कूल न आये तो उनके जीवन में कभी स्कूल की खुशी नहीं मिलेगी। भले ही वह सप्ताह में कुछ रोज ही आएँ पर आएँ जरूर। जब स्कूल आएँगे तभी उन्हें मैं रोक सकूँगा कुछ बता सकूँगा। 
   बच्चों को कठिन रासायनिक सूत्र समझ नहीं आते हैं, उन्हें गणित भी ज्यादा समझ नहीं आती। अंग्रेजी की किताब खोलते ही कक्षा में शांति छा जाती है। बच्चे स्लो लर्नर हैं कक्षा 6 के बच्चों को वर्णमाला के साथ शुरुआत करनी होती है। किताबें उनके लिए अभी महत्वहीन हैं। जब तक गिनती पहाड़े आदि सीख पाते हैं तब तक छमाही परीक्षा आ चुकी होती है। उन्हें फेल नहीं करना है, इसलिए नहीं कि सरकारी नियम हैं, इसलिए कि फेल करने के बाद भी उनके माता पिता पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। मुझे पता है कि बच्चे फेल होंगे तो गाँव में आवारागर्दी करेंगे और बुरी आदतें सीखेंगे या कहीं काम धंधा खोजेंगे इसलिए मैं उन्हें स्कूल ही बनाये रखना जरूरी समझता हूँ। अधिकांशतः रेगुलर पढ़ाई के साथ ही स्कूल की उपस्थिति कम होने लगती है, फिर पता चलता कि बच्चे कोर्स पूछे जाने और होमवर्क के भय से गायब हो रहे  हैं। उन्हें तो मस्ती करने और खेलने में मज़ा आता है। मैं पढ़ाने की बजाय खेल के घंटे फिर से बढ़ा देता हूँ और गायब बच्चे फिर स्कूल आ जाते हैं। मैं क्लास में पढ़ाने की जगह अक्सर उनसे घंटो बतियाता हूँ। प्रेरक कहानियाँ सुनाता हूँ उन्हें विज्ञान की दुनिया के कल्पना लोक में ले जाता हूँ। बच्चों से उनके घर परिवार और गाँव की बातें करता हूँ और बच्चे चहक-चहककर एक-दूसरे की पोल खोल देते हैं। ऐसी-ऐसी बातें सामने आती हैं कि बच्चों की स्थिति के बारे में सोचकर वेदना से मन तड़प उठता है। पारिवारिक परिस्थितियाँ इतनी गंभीर हैं कि लगता है भारत अभी भी विकास की प्रारंभिक अवस्था मे ही है। बच्चों के घर जाओ तो बच्चों की जीवनस्तर को देखकर कलेजा मुँह को आ जाता है। मुझे मालूम है कि इनका नाम स्कूल में जबरदस्ती लिखा गया है, ऐसे में खुशनुमा माहौल दिए बिना इन्हें रोक पाना कठिन है। मुझे यह भी पता है कि आज तक इनके घर मे कभी पढ़ाई के बारे में नहीं पूछा गया है। मुझे उनके घर देखकर यह भी अनुमान लग गया है कि फसल के समय मजदूरी करना इनके जीवन की जरूरत है इसलिए फसली समय पर मैं इन्हें अक्सर रोकता नहीं हूँ। 
 इंटरवल में बच्चे जी भर कर खेलना चाहते हैं कभी कभी खेल का यह घंटा मैं छुट्टी तक खत्म नहीं होने देता। गर्मी में पसीने से लथपथ बच्चों के चेहरे पर खेल पाने की खुशी बड़ा सुकून देती है क्योंकि बैट बल्ला केवल स्कूल में ही उपलब्ध है। गाँव में तो बच्चे कंचा, पिलिया और जुआ खेलते हैं। मैं अब बच्चों को विषय नहीं पढ़ाना चाहता मुझे मालूम है कि उनके जीवन मे कठिन पढ़ाई से ज्यादा जरूरी सामान्य अक्षर ज्ञान और लोकाचार सीखना है। मुझे पता है कि मैं उन्हें खुशियाँ नहीं दे सकता हूँ और न ही उनके परिवार की आर्थिक मदद कर सकता हूँ पर उन्हें 6 घंटे उनके बच्चों को खिलखिलाकर हँसने का अवसर देना तो मेरे हाथ में है। मेरे बच्चों को कहानियाँ सुनकर अच्छा लगता है, उन्हें स्कूल में क्यारियाँ बनाना, पौधे लगाना और उनकी देखभाल करना पसंद है। लड़कियों को सैतन्ना और गुच्च खेलते देखना अदभुत है। लड़के जब क्रिकेट खेल रहे होते हैं तो क्लास के कोने में पढ़ाई के डर से दुबके रहने बाले  सबसे कमजोर लड़के बॉबी की आक्रामकता देखते बनती है। 
 मुझे मालूम है कि जब मीडिया, पत्रकार ,खंड शिक्षा अधिकारी और बड़े अफसर विद्यालय आएँगे तो शैक्षिक गुणवत्ता मूल्यांकन में मुझे शून्य अंक मिलना तय है। पर अब मैं निश्चय कर चुका हूँ कि कठिन पाठ्यक्रम को सिखाने की बजाय घोर अभाव में जी रहे इन बच्चों को खुलकर खिलखिलाने के अवसर देने के लिए सभी प्रयास कररूँगा। समय के साथ वह किताब पढ़ना, गिनती, ओलम सीखते ही जाएँगे। मैं चाहता हूँ कि जब वह इस विद्यालय से जाएँ तब तक एक अच्छे इंसान बन जाएँ जिनमें सामुदायिक सहभागिता की भावना हो, जो प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम हों, जो शालीन, शिष्ट और आज्ञाकारी हों, जो भले बुरे का निर्णय ले सकते हों, जिन्हें सामान्य जीवन व्यवहार की जानकारी हो और अगर यह मैं कर पाया तो मुझे सन्तुष्टि होगी कि मैंने अपने अध्यापक होने के कर्तव्य को पूरा किया है।
आप मुझे गालियाँ दे सकते हैं पर मुझे खुशी है कि मैं प्राइमरी का मास्टर हूँ और अपने छात्रों को जीवन जीने की कला सिखा रहा हूँ।

लेखक
अवनीन्द्र सिंह जादौन,
इटावा



Comments

  1. सर इतना मार्मिक लेख लिखा है कि आँखें भर आई है मै भी प्राथमिक विद्यालय का शिक्षक हुँ और ये परिस्थितियाँ बच्चों को उपलब्ध करवाने का प्रयास करूंगा

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  2. True said. प्रमाण ऐसे मास्टर को

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  3. मन में ही पढ़ने के बावजूद गला अवरुद्ध हो गया और आँखें नम हो गयीं।

    हमें मिली हुई परिस्थितियों में शिक्षा और शिक्षक की नयी भूमिका को परिभाषित करता मार्मिक नहीं, 'बेहद मार्मिक' लेख

    लेखक को अनेकानेक नमन
    👏👏👏👏

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    1. धन्यवाद आपकी प्रतिक्रिया मुझे ताकत देगी

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  4. 100%वास्तविकता मन की बात

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  5. आप का लेख पढ़कर ऐसा लगा जैसे मेरे अब तक के अनुभवों का वर्णन किसी ने अपने शब्दों में किया हो। ...यथास्थिति का बेहद मार्मिक वर्णन।

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  6. really true sir aise kai case mere vidhyaalaya me bhi hai .kabhi kabhi itni takleef hoti hai jo shabdon me bayan nhi ki jaa sakti

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  7. लेखक को शत शत नमन।।।बिल्कुल सच्चे तथ्यों को उजागर किया गया है

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  8. सर जी आपने सच्चाई को बहुत ही ईमानदारी से निर्भयता के साथ बहुत ही मार्मिक शब्दो मे व्यक्त किया है जिसके लिए आपको नमन करती हूं।🙏🙏

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  9. सुन्दर लेख दिन प्रतिदिन 8स प्रकार के झंझावात से झुझना पड़ता है ।आपके लेख यथार्थ परक होते है

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  10. वाकई में बहुत ही मार्मिक चित्रण खिंचा है आपने । काश इस लेख पर नेताओं और अधिकारियों की नजर पड़ जाए तो आने वाली पीढ़ियों में सुधार हो सकता हैं।।

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  11. सत्य वचन अवनींद्र भाई बहुत ही अच्छी एवम सार्थक बात है। जिस पर चिंतन जरूरी है।


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  12. एक सांस में पूरी कहानी पढ़ ली निशब्द हू वाकई बहुत जटिल परिस्थितियों में है हमारे बच्चे मन करता है सब कुछ सिखा दे इनको पर जो हालात है इनके वही बहुत कुछ सिखा देते है हमें

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  13. बेहतरीन आलेख

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