तेरी बगिया क्यों उजड़ रही

तन, मन, धन अर्पण करके,
        तूने जो बाग लगाया था।
प्यार का बिरवा, त्याग का पानी,
           श्रम से जिसे निराया था।
याद में तेरे ऐ माली,
         नाजुक टहनी सब सिसक रही।।
         तेरी बगिया क्यों उजड़ रही।

निःस्वार्थ भाव से प्रेरित होकर,
              तूने जो स्वप्न सज़ाया था।
इस मानव रूपी बगिया में,
          मधुमास हमेशा छाया था।
  पतझड़ आया लगता जैसे,
           निज स्वार्थ भावना उमड़ रही।।
           तेरी बगिया क्यों उजड़ रही।

अपने ग़ैरों का भेद भुला,
           सबको यह मंत्र बताया था।
जन-जन में भ्रातृत्व भाव को,
             तूने ही तो जगाया था।
जाने क्यों फिर रीति केर-बेर की,
             हर मानस को जकड़ रही।।
             तेरी बगिया क्यों उजड़ रही।

दुर्भाग्य रहा नव पीढ़ी का,
        देखा न तुझे इन आँखों से।
शायद वह राह नहीं है यह,
          चल रहे राह निज राहों से।
यह तुच्छ लेखनी जो रंजन की,
               बिना तुम्हारे भटक रही।।
               तेरी बगिया क्यों उजड़ रही।

रचयिता
राजेश तिवारी "रंजन",
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय महुआ-2,
विकास क्षेत्र-महुआ,
जनपद-बाँदा।

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